भार्गव आंटी-आप बहुत याद आती हैं...
फोन, फेसबुक और व्हाट्सअप। सुबह से फोन चार्जर पर ही लगा हुआ था। सालगिरह मुबारक हो या हैपी बर्थ डे। यह सुनना आखिर किसे खराब लगेगा। पर जब कॉल पर कॉल चढ़ी रहे और व्हाट्सअप फेसबुक की घंटियां लगातार बजती रहें तो सोचना पड़ता है? आखिर कैसे इतने सारे लोगों का शुक्रिया अदा करूं?
मेरे और मृदुला आंटी के बीच एक बेहतरीन केमेस्ट्री थी। शायद इसलिए कि वह जानती थीं कि मेरी मां नहीं हैं। और शायद इसलिए भी कि मैं जानता था कि वह अपने बेटे रजत को बहुत मिस करती हैं। रजत आंध्र प्रदेश कैडर के आईएएस हैं। जाहिर है काफी व्यस्त रहते थे। उनकी पत्नी भी आईआरएस थीं। लिहाजा उन दोनों के पास वक्त कम था। आंटी लखनऊ में ही जॉब करती रहीं, उन्हें यह शहर बहुत पसंद था। ऐसे में हमारी खूब बातचीत होती। मैं तब तक कुछ निजी कारणों से घर छोड़ चुका था। हॉस्टल में रहता था। लिहाजा अक्सर शाम का खाना आंटी के साथ होता। वह बड़े प्यार से तरह तरह की चीजें बनाकर खिलाती थीं।
सोचा कुछ नया करता हूं। उन लोगों को याद करता हूं जो मुझे ऐसी ही बधाइयां उस वक्त देते थे,सेलिब्रेट करते थे जब मैं वह नहीं था जो आज हूं। उनमें पहला नाम याद आता है मुझे अपनी आंटी मृदुला भार्गव जी का। वह अब इस दुनिया में नहीं हैं। मृदुला आंटी से मेरी मुलाकात 1993-94 के दौरान हुई। मैने पत्रकारिता में डिप्लोमा कोर्स के लिए लाल बहादुर शास्त्री इंस्टीट्यूट ऑफ काम्युनिकेशन हजरतगंज में दाखिला लिया था। आंटी ने भी यही कोर्स ज्वाइन किया था। वैसे वह महिला कॉलेज में इंटरमीडियट क्लासेज में इंग्लिश पढ़ाती थीं। कोर्स के दौरान ही उनसे बातचीत होने लगी। कोर्स खत्म होते होते उनसे अच्छी पहचान हो गई। फिर मैने शाम के अखबार में नौकरी करनी शुरू कर दी। इस बीच नरही की भार्गव लेन स्थित उनके घर भी आना जाना होने लगा।

उनके पति यानी भार्गव अंकल इरीगेशन में चीफ इंजीनियर से रिटायर हुए थे। हर दर्जे के ईमानदार। लोग उन्हें झक्की समझते थे। एक एक्सीडेंट के बाद उनके दिमाग पर थोड़ा असर भी हुआ था। लिहाजा उनके काम को अक्सर सनक समझा जाता। वह रोजाना सुबह पांच बजे तड़के बोटेनिकल गार्डेन जाते थे। नियम के इतने पक्के थे कि चाहें जितनी मूसलाधार बारिश हो, वह छतरी लेकर घूमने जाते। तमाम सरकारी विभागों के खिलाफ उनके पास अलग अलग फाइलें थीं। भ्रष्टाचार के खिलाफ उनकी जंग छिड़ी रहती। उससे वह बेचारे अकेले ही लड़ रहे थे। एक बार वह लखनऊ संसदीय सीट पर अटल बिहारी वाजपेयी जी के खिलाफ निर्दलीय चुनाव भी लड़ गए। उनका चुनाव चिह्न पतंग था और वह पीठ पर पतंग बांधकर गली गली वोट मांगने के लिए अकेले घूमते। आंटी को अंकल का यह रवैया पसंद नहीं था। वह उन्हें समझा समझाकर हार चुकी थीं। मैं जब कभी भी शाम को आंटी के पास पहुंचता तो अंकल मुझे पहले घेर लेते। उनके पास मोटी मोटी फाइलें होती थीं। वह मुझे समझाने में लग जाते। खबर बनवाने के लिए। मैं निरीह सा आंटी की तरफ देखता। आंटी समझ जातीं। वह तकरीबन लड़-भिड़कर जबरदस्ती अंकल को ऊपर वाले कमरे में भेज देतीं। फिर शुरू होती मेरी आवभगत। मैं जब भी जाता तो सबसे पहले मुझे वह चिलगोजे और पिस्ते खाने को देतीं। उसके बाद चाय नाश्ता और फिर रात का खाना। उनसे खूब बातें होतीं। मैं अपनी एक एक बात उनको बताता। बचपन से लेकर तब तक की। घर के बारे में, दोस्तों के बारे में, यूनीवर्सिटी के बारे में और जर्नलिज्म के बारे में। इस बीच रजत भैया भी कभी कभार आते। उनसे भी अच्छी दोस्ती हो गई थी।
यह बात शायद 1996 की है। मई का महीना था। बात बात में मेरे मुंह से बर्थ डे का किस्सा निकला। दरअसल तब मुझे अपना बर्थ डे मनाना बहुत पसंद था। जब तक घर पर रहा, उस दिन खूब धूम होती। अक्सर कानपुर से रिश्तेदार आते थे। दोस्तों का जमावड़ा लगता। जर्नलिज्म में आने से पहले ही घर छूट चुका था। जेब में इतने पैसे कभी होते ही नहीं थे कि चार लोगों को भी ठीकठाक पार्टी दे सकूं। तब तक मैने लखनऊ यूनीवर्सिटी में एमए राजनीति शास्त्र में एडमिशन ले लिया था। ठीकठाक मित्रमंडली थी और पार्टी देने के पैसे नहीं। आंटी को पता चला तो उन्होंने खूब डांटा और कहा-मेरे रहते तुम्हें परेशान होने की जरूरत नहीं। तैयारियां शुरू कर दीं। पहले तो नए कपड़े दिलवाए। फिर केक ऑर्डर हुआ। उसके बाद दोस्तों की लिस्ट मांगी। मुझे अच्छी तरह से याद है कि उस पार्टी में यूनीवर्सिटी से शिल्पी, अपर्णा, आराधना, पुराने दोस्तों में रंजना, प्रवीन और परिवार के कुछ लोग शामिल थे। उन्होंने तैयारियां शुरू कीं। वह लायंस क्लब की मेम्बर थीं। उनकी क्लब की दोस्तों ने तय किया कि वह लोग अपने अपने घर से कुछ कुछ बनवाकर भेजेंगी। मुझे अच्छी तरह से याद है कि छोले और पनीर की सब्जी लामार्टिनियर वाली अग्निहोत्री आंटी के यहां से आए थे। उनका बेटा मीतू अमिताभ भी आया था। तो खैर बेहतरीन पार्टी हुई। खूब गाने गाए गए जमकर मस्ती हुई। एक बेहतरीन दिन था। आज अचानक जब काफी लोगों की बधाइयां आने लगीं तो मुझे आंटी याद आ गईं। सोचा उनसे जुड़ी यादों को ब्लॉग पर दर्जकर आप से शेयर किया जाए। शेयर करने के पीछे एक मंशा यह भी थी कि मैं उन लोगों के प्रति अपनी कृतज्ञता दर्ज कर सकूं जो परिवार से न होते हुए भी परिवार से बढ़कर कर रहे। शायद मेरी मां होतीं तो बिलकुल भार्गव आंटी जैसी ही होतीं। उनमें उतनी ही ममता थी, जितनी मेरी स्वर्गीय मां। मुझे अच्छी तरह से याद है कि जब कैंसर की आखिरी स्टेज में आंटी अस्पताल में तकलीफ से जूझ रही थीं तो मैने उनसे पूछा था-आंटी आप को क्या महसूस हो रहा है। उन्होंने जवाब दिया था-मुझे लगता है कि मुझे सफेद कपड़े पहने हुए देवदूत ऊपर खींच रहे हैं। वहां बहुत सुहाना मौसम है, जितना ऊपर जाती हूं मेरी तकलीफ कम होती जाती है। लेकिन नीचे से तुम, रजत और अपनी बेटी का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि-तुम लोग मुझे नीचे खींच रहे हो, यहां बहुत तकलीफ है, दर्द है। कुछ दिन बाद उनकी मौत हो गईं। वह चली गई पर मुझे हमेशा याद रहती हैं। हमेशा यह अहसास रहता है कि आखिरी पलों में उनकी नजर में मेरा दर्जा वही था, जो उनके अपने बेटे और बेटी का था।
ज्ञान बाबा की पार्टी
बर्थ डे का जिक्र चल ही रहा है तो ज्ञान बाबा की पार्टी मैं कैसे भूल सकता हूं। मेरी पहली नौकरी थी संसार लोक अखबार में। पांच सौ रुपए महीने मिलते थे और फिर वही मुसीबत यानी बर्थ डे आ गया। दोस्तों की फरमाइश पार्टी की और जेब में पैसे नहीं। ज्ञान बाबा यानी ज्ञान सक्सेना नए नए मित्र बने थे। वह सीनियर थे और आज अखबार के रिपोर्टर थे। उन्होंने कहा, चिंता मत करो, बर्थ डे मनेगी। कोहिनूर होटल में सारे मित्र बुलाए गए। कई पत्रकार और अफसर भी आए। दोस्त और घर के लोग तो खैर थे ही। शानदार पार्टी हुूई। अब सवाल यह खड़ा हुआ कि पेमेन्ट कैसे और कितना किया जाए। कुछ पै से ज्ञान बाबा ने डाले, कुछ हमने और बाकी लिफाफे फाड़कर निकाले गए। मैनेजर बाबा का दोस्त था। सो नो प्रॉफिट नो लॉस पर भुगतान कर दिया गया। सबने खूब वाह वाह की पर मुझे उसी पार्टी में मशहूर कार्टूनिस्ट मंजुल का बनाया एक ग्रीटिंग कार्ड संजीव भाई ने दिया। उसमें स्प्रिंग पर बैठा एक चूहा जोर से जम्प ले रहा था। किसी ने मुझसे कुछ कहा नहीं पर मैने व्यंग्य को समझ लिया। मंजुल का इशारा किस ओर था। मुझे चूहों वाली छलांग नहीं लगानी थी लिहाजा उस तरह की पार्टी मैंने फिर कभी नहीं की। अपनी हैसियत को समझा और उसी के हिसाब से जीने का फैसला किया।
ज्ञान बाबा की पार्टी
बर्थ डे का जिक्र चल ही रहा है तो ज्ञान बाबा की पार्टी मैं कैसे भूल सकता हूं। मेरी पहली नौकरी थी संसार लोक अखबार में। पांच सौ रुपए महीने मिलते थे और फिर वही मुसीबत यानी बर्थ डे आ गया। दोस्तों की फरमाइश पार्टी की और जेब में पैसे नहीं। ज्ञान बाबा यानी ज्ञान सक्सेना नए नए मित्र बने थे। वह सीनियर थे और आज अखबार के रिपोर्टर थे। उन्होंने कहा, चिंता मत करो, बर्थ डे मनेगी। कोहिनूर होटल में सारे मित्र बुलाए गए। कई पत्रकार और अफसर भी आए। दोस्त और घर के लोग तो खैर थे ही। शानदार पार्टी हुूई। अब सवाल यह खड़ा हुआ कि पेमेन्ट कैसे और कितना किया जाए। कुछ पै से ज्ञान बाबा ने डाले, कुछ हमने और बाकी लिफाफे फाड़कर निकाले गए। मैनेजर बाबा का दोस्त था। सो नो प्रॉफिट नो लॉस पर भुगतान कर दिया गया। सबने खूब वाह वाह की पर मुझे उसी पार्टी में मशहूर कार्टूनिस्ट मंजुल का बनाया एक ग्रीटिंग कार्ड संजीव भाई ने दिया। उसमें स्प्रिंग पर बैठा एक चूहा जोर से जम्प ले रहा था। किसी ने मुझसे कुछ कहा नहीं पर मैने व्यंग्य को समझ लिया। मंजुल का इशारा किस ओर था। मुझे चूहों वाली छलांग नहीं लगानी थी लिहाजा उस तरह की पार्टी मैंने फिर कभी नहीं की। अपनी हैसियत को समझा और उसी के हिसाब से जीने का फैसला किया।
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