ले लो न सब आकर

कितना उधार है तेरा मुझ पर
ले लो सब आकर
वो जो तुमने गले से लगाया था अनायास यूं ही
और सांसों से सहलाया था कंधों को मेरे
ले लो सब आकर
कितना उधार है तेरा मुझ पर

बिलख कर रोई थीं उस दिन तना
इत्ती छोटी सी एक बात पर
खूब संभाल कर रखा है मेरे सफेद रुमाल ने
आंसुओं में लिपटे काजल को आज भी
ले लो सब आकर
कितना उधार है तेरा मुझ पर

कोहरे से भरी एक सर्द शाम को
लिपटे-लिपटे साथ चल रहे थे हम
हां, उसी दरख्त के नीचे पार्क में
बड़ी शरारत से पीली शर्ट पर
होठों की लाली से दो पंखुडिय़ां बनाई थीं तुमने
ले लो सब आकर
कितना उधार है तेरा मुझ पर

नहीं संभलती हैं ये स्मृतियां
डरता हूं बार-बार
भुला दूं इन बातों को वैसे ही
जैसे भूलकर चला आया था
दूर बहुत दूर तुमसे, सिर्फ यादों के साथ
ले लो सब आकर
कितना उधार है तेरा मुझ पर

Comments

  1. शुक्रिया, वैसे मैं तो भूल ही गया था कि वैलेंटाइन डे क्या बला होती है. कुछ उम्र का भी तकाजा है, कुछ जिन्दगी की मशरूफियत.आपकी कविता पढ्कर कुछ धुंधला-धुंधला सा याद आ रहा है कि हम भी कविता लिख लेते थे, इश्क की बातें लिख लेते थे. अच्छा हुआ सब चला गया. अब तो चारों तरफ सिर्फ शोर है.

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  2. बड़े दिनों बाद............अच्छा लगा पढ़ के.

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