पहला विलेन


Sudhir Misra

उन दिनों मोबाइल नहीं था। फोन इक्के दुक्के लोगों के घर हुआ करता था। टेलीविजन था पर बहुत महंगा। उसे खरीद पाना ज्यादातर की हैसियत से बाहर ही होता था। आज के हिसाब से सोचें तो बड़ा बोरिंग जमाना था। फिल्में भी ऐसी बनती थीं कि हीरोइन कम हीरो ज्यादा शरमाते थे। हां एक बदलाव जरूर था। विलेन की कार का पीछा करने वाले हीरो का दौर जा रहा था। पहाड़ियों से लटकने वाली हीरोइनें भी अब कम दिखती थीं। तुम होती थीं तो ऐसा होता, वैसा होता वाले डायलॉग अब लोगों को ज्यादा रिझा रहे थे।
 ऐसे दौर में अपना हीरो भी बड़ा हो रहा था। अभी दूध के दांत पूरी तरह से टूटे थे या नहीं, यह बता पाना मुश्किल है। हाँ यह जरूर है कि तीसरी जमात से चौथी में आते ही वह खुद को बड़ा महसूस करने लगे। मन में अजीब अजीब सी हलचलें शुरू होने लगी थीं। एक दिन दीपाली ने उसका बस्ता देख लिया। एकदम बेतरतीब। मन में जाने क्या आया, बोली लाओ सत्येंद्र तुम्हारा बस्ता सजा दें। सत्तू कुछ बोलता, उससे पहले ही दीपाली ने बस्ता अपनी तरफ खींच लिया। उसने कॉपी एक साइड में रखीं, किताबें दूसरी तरफ। जिनका कवर उतर रहा था, उन्हें ठीक से लगा दिया। स्कूल बैग अचानक बहुत सुंदर लगने लगा। वैसे दीपाली भी बहुत सुंदर थी। सत्तू कभी बैग देखे तो कभी दीपाली को। उस उम्र में थैंक्यू, शुक्रिया या धन्यवाद सिखाया ही नहीं गया था। फिर भी मन ही मन सत्तू भाई बहुत खुश हुआ। उसे लगा दीपाली तो मम्मी से भी अच्छा बस्ता लगा देती है। जी हां, दीपाली में उसे अपनी मम्मी वाली खूबियां नजर आईं। तब से वह हमेशा सोचता कि जब बस्ता अच्छा लगाती है तो टिफिन कितना बढ़िया बनाती होगी।
 सत्तू को हर घंटे में भूख लगती थी। खाने के कुछ देर बाद उसे फिर से खाना होता था। लिहाजा घर से नाश्ता करके आने के बावजूद इंटरवल से पहले ही आधा टिफिन वह खा चुका होता। हर पीरियड में थोड़ा थोड़ा चुपके चुपके।  इंटरवल तक बचा खुचा खाकर फिर उधम काटना उसकी फितरत थी।  एक दो बार दीपाली ने उसे टोका भी। उसके टोकते ही सत्तू शांत हो जाता। आखिर दीपाली मम्मी से ज्यादा सुंदर तरीके से उसका स्कूल बैग सजाती थी। दीपाली उस पर इतनी मेहरबान क्यों है, यह उसके ख्याल में कभी नहीं आया। अलबत्ता वह यह जरूर सोचता कि दीपाली की बगल वाली सीट पर बैठने वाली सुमन को बस्ता सजाना आता होगा या नहीं। उसकी बड़ी ख्वाहिश थी कि सुमन किसी दिन उसका बस्ता ठीक करे। या फिर अपना टिफिन ही शेयर कर दे। सुमन थोड़ी सांवली से हर वक्त चहकने वाली लड़की थी। वह तो दीपाली जैसी गोरी थी और सुंदर। ही उसकी तरह सीधी सादी शांत। फिर भी सांवली सुमन से उसका बार बार बात करने का मन करता था।
 उसकी शैतानियां सत्तू को पसन्द थीं। वह हमेशा उसे चुपके से देखता। कभी बात करता। पास भी नहीं जाता। हां, अपनी नजरों के दायरे से उसे बाहर भी नहीं होने देता। सत्तू क्लास के सबसे बदमाश बच्चों में गिना जाता था। एक क्लास खत्म होने और दूसरी शुरू होने के बीच कुछ मिनट का खाली वक्त होता था। उस वक्त के चौधरी होते थे मॉनिटर राजीव और अखिल। उनका काम था ज्यादा शैतानी करने वाले साथियों के नाम लिखकर सर या मैम को देना। खासतौर पर राकेश सर को जब यह नाम मिलते तो लकड़ी के डस्टर से खुली हथेली को चटका कर लाल कर देते। सत्तू की फिल्मी क्लास रूम में अगर सुमन हीरोइन, दीपाली कैरेक्टर आर्टिस्ट और वह खुद हीरो था तो राजीव-अखिल विलेन। उसका बस चलता तो लकड़ी के स्केल से पीट कर उनकी पीठ लाल कर देता। बहरहाल यह मुश्किल काम था। मुश्किल तो सुमन से दोस्ती कर पाना भी था। दोस्ती दूर की बात, उसके सामने तो सत्तू की बोलती बंद हो जाती। कई बार तो टांगें कांपने लगती थीं। सबकुछ खरामा खरामा चल ही रहा था कि अचानक एक दिन हंगामा हो गया। सुमन चार दिन तक स्कूल नहीं आई। हाफ इयरली एग्जाम में वह फर्स्ट आई थी। उसका तो सबकुछ ठीक था। फिर क्या हुआ। क्या बीमार है?
कुछ समझ नहीं रहा था। वह कश्मीरी मोहल्ले में रहती है, यह उसने कहीं सुना था। कैसे पता करे, फिर उसे ध्यान आया कि विष्णु भी तो उधर ही रहता है। पर यह कमबख्त भी तो कई दिन से नहीं रहा। विष्णु सत्तू का खास दोस्त था। दोनों साथ साथ बैठते थे। इस बीच वकील अहमद ने खबर ब्रेक की। बोला अबे सत्तू पता है सुमन को किसी ने लवलेटर दे दिया जाकर घर पर। मुझे जोर का झटका लगा। लव उस दौर का सबसे सनसनीखेज शब्द था। हर बच्चे में जिज्ञासा थी इस शब्द के बारे में ज्यादा से ज्यादा समझने की। जितना भी समझ लें, हमेशा लगता कि इसके बारे में और जानें। कई बार लगता कि इसके लिए एक क्लास अलग से हो तो क्या बुरा। इतने महान शब्द लव के साथ लेटर जुड़ा तो  मानों बम फअ गया हो। पर सत्तू के लिए असल बम तो अभी फूटना बाकी था। वकील बोला जानते हो लेटर किसने फेंका था। सत्तू ने उत्सुकता और दुख से पूछा किसने ? जवाब मिला तुम्हारे दोस्त विष्णु ने। यह सच था कि विष्णु सत्तू का दोस्त था। दोनों के ख्याल एक जैसे थे। दोनों ने एक दो बार लव  की बात भी की थी, पर सुमन के बारे में कभी कोई बात नहीं हुई। उसकी आँखों के आगे अंधेरा छा गया। गुस्से से टांगे कांपने लगीं। वह तो अच्छा हुआ कि सुमन के पापा की शिकायत पर विष्णु के मम्मी पापा को बुला लिया गया। फिर उसका सेक्शन भी बदल गया। वरना कसम से विष्णु से बड़ा कांड स्कूल में सत्तू के हाथों होना था। उसकी नजर में राजीव और अखिल अब विलेन नहीं थे। विष्णु था असली खलनायक। क्योंकि क्लास चार पास करते ही सुमन को उसके पापा ने गर्ल्स कॉलेज भेज दिया। सत्तू को सुमन की शैतान मुस्कराहट फिर कभी नजर नहीं आई। दीपाली अब भी बस्ता ठीक कर देती, पर वह तो मम्मी जैसी थी, सुमन नहीं। विष्णु यह तुमने अच्छा नहीं किया। तुम थे सत्तू की जिंदगी के पहले असली विलेन।

Comments

  1. मज़ा आ गया कुछ यादें ताजा हो गई

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  2. वाह सुधीर भाई, मज़ा आ गया।

    सत्येन्द्र, विष्णु, राजीव और दीपाली........... पुरानी यादें ताजा हो गईं

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  3. क्या बात है ,लेखनी के नये प्रयोग।कहानी और संस्मरण रेखा चित्र का आनन्द।बधाई।

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