हम तुम से कुछ मांगने आए हैं बहाने फाग के
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी का शेर है-
मौसम ए होली है दिन आए हैं रंग और राग के
हम से तुम कुछ मांगने आओ बहाने फाग के
होली आने वाली है। ऐसे में अगर आप का घर कभी
कायस्थों की गलियों में रहा हो तो इस त्योहार के मायने कुछ ज्यादा ही रंगीन होते हैं।
दिल्ली के बल्लीमारान की गली कासिमजान में रहने वाले कैप्टन राजीव श्रीवास्तव अब मुंबई
में बसते हैं पर उनकी यादों में रहती है ग़ालिब की गलियां और वहां की होली। हालांकि
उनके लखनऊ वाले रिश्तेदार प्रोफेसर श्रीवास्तव हमेशा कहते हैं-अमां छोड़िए, यहां आइए
होली पर। दुलमा और सुरा के साथ जो रसरंजन होगा, वो और कहां।
अब यह दुलमा क्या होता है ? इसे तो लखनऊ के पुराने
लोग जानते हैं। दुलमा से बावस्ता होने से पहले बात करते हैं होली की। यह बहस बेकार
है कि कहां की होली सबसे अच्छी। कोई मथुरा वृंदावन की होली को कहेगा तो कोई बनारस की
होली को। लेकिन दिल्ली और लखनऊ में जब बहस होती है तो फिर शोर इतिहास के पन्नों को
पलटने लगता है। मुगल बादशाह बाबर और अकबर से लेकर लखनऊ के नवाब वाजिदअली शाह तक होली
के दीवाने थे। शायद यही वजह है कि कायस्थों की होली में उनका प्रभाव दिखता है। अवध
में एक कहावत है कि ब्राह्मणों के लड़के होली पर कायस्थों के घर जाकर बिगड़ना शुरू
होते हैं। ये बातें अक्सर पुरानी पीढ़ियों के लोग कहते रहे और नई पीढ़ी उनके घर पर
जाकर सामिष और सुरा का आनंद लेती रही। कहावत चाहें जो रही हों पर जाति मजहब का कोई
बंधन यहां होता नहीं था। पुराने लखनऊ की एक गली है जियालाल फाटक। राजा जियालाल नवाबों
के मुंशी थे। मुंशीगिरी, खाता बही और पढ़ाई लिखाई के काम कायस्थों की सदियों पुरानी
परम्परा का हिस्सा रहे हैं। देश भर के राज दरबारों में उनकी पढ़ाई लिखाई का डंका आज
जैसा ही बजता था। अकबर के दरबारी राजा टोडरमल कायस्थ थे और उनके हिसाब किताब का कोई
सानी नहीं था। राजा जियालाल उसी परंपरा के वाहक थे। उन्हीं के नाम पर गली का नाम जियालाल
फाटक रख दिया गया। बचपन याद करूं तो यहां रहते थे मरहूम डा गोपीनाथ श्रीवास्तव। होली
के दिन उनके दरवाजे खुले रहते थे। सुरा की बोतलें, ग्लास और दुलमा। दुलमा होली के दिन
की एक खास नॉन वेजीटेरियन डिश होती है। आम दिनों में कायस्थ परिवारों में लिटपिटा कीमा
मटर बनता है पर होली के दिन थोड़ा सूखा सा कीमा, मटर और गोभी के साथ बनाया जाता है।
लखनऊ यूनिवर्सिटी के रिटायर प्रोफेसर अनिल श्रीवास्तव तो होली के किस्से सुनाते सुनाते
चार सौ साल पहले तक पहुंच जाते हैं। उनके बाबा के बाबा के परबाबा थे मन्नालाल आबकारी।
उस जमाने में शराब महकमे के इंचार्ज थे। प्रोफेसर साहब खानदान का सिजरा खोलते हुए बताते
हैं-होली तो हम लोगों की हमेशा से ऐसी ही शानदार होती थी। कायस्थों के यहां भांग नहीं
सुरा ही हमेशा से चलती आई है। त्योहार के मौके पर नॉनवेज की एंट्री राजदरबारों के प्रभाव
से हुई। उनकी परदादी के वक्त मांसाहार घर के बाहर पकता था। घर की रसोई में उसका प्रवेश
नहीं था। लिहाजा महिलाओं में नॉनवेज का चलन काफी बाद में शुरू हुआ। प्रोफेसर साहब बताते
हैं कि उनकी दादी ने घर के बाहर पकाने की प्रथा को तोड़ा। उन्होंने कहा कि यह मरद हमसे
अच्छा पकाएंगे क्या। तो इस तरह गोभी, मटर के साथ दुलमा और सूखी कलेजी के साथ शराब का
चलन एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक आता गया। बड़ी संख्या में कायस्थ ऐसे भी हैं जो मांसाहार
से दूर रहे। उनके घरों में इस मौके पर सूखे मसालेदार कटहल, कल्हारे आलू, तीखी चटनी
और काली गाजर की कांजी के भरे हुए ग्लासों का चलन रहा। बाकी खोए, किशमिश, चिरौंजी और
मैदे की गुझियां तो होती ही थीं। मूंग की दही में डूबी पकौड़ियां भी इस मौके पर खिलायी
जाती हैं। कहते हैं कि तीज-त्योहारों पर अपने घर गांव जरूर जाना चाहिए। नहीं
जाएंगे तो किसी फूड एप को फोन करेंगे और बाहर का खाना मंगवाएंगे। सवाल है कि क्या होली
के मौके पर कोई रेस्त्रां ऐसा होगा जो आप को बल्लीमारान में मिलने वाली काली गाजर की
कांजी या लखनऊ के शास्त्रीनगर की गलियों के कायस्थ परिवारों वाले दुलमा का स्वाद चखा
पाए। उसके लिए तो अपनी जड़ों से ही जुड़ा रहना होगा। उसके लिए याद रखना पड़ेगा अपने
बुजुर्गों को और उनसे जुड़ी रवायतों को। याद नहीं रखेंगे तो फिर कभी जरूर याद करेंगे
दानिश असरी के इस शेर को-
किताब में वो पंखुड़ी का सिलसिला चला गया
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