जुबां को चाह है पराठों कि पर इस सेहत का क्या करूं
मीर तक़ी मीर ने लिखा है-
पढ़ते फिरेंगे गलियों में
इन रेख़्तों को लोग
मुद्दत रहेंगी याद ये बातें
हमारीयाँ
बात गलियो की हो रही है तो
कुछ दिन पहले पराठे वाली गली में जाना हुआ। वही अपनी चांदनी चौक वाली गली। भांति भांति
के पराठे, ना ना प्रकार की सब्जियां और प्रांत प्रांत के लोग। लोग पराठों पर टूटे पड़
रहे थे। ज्यादातर दुकानें भरी हुई थीं। लोग बाहर लाइन में लगे हुए थे। लग रहा था कि
कोविड की पाबंदियां खत्म होने के बाद पूरी दिल्ली ने मानों इधर ही कूच कर दिया हो।
लोग ठूंस ठूंस कर खा रहे थे और मुझे याद आ रहे थे अपने एक आईपीएस मित्र। इन साहब ने
दो साल से पराठे तो दूर, गेहूं की रोटी तक नहीं खायी है।
कुछ दिन पहले उन्होंने अमेरिकी
ह्रदय विशेषज्ञ डा विलियम डेविस की एक किताब पढ़ी व़्हीट बेली। यानी गेहूं की तोंद।
यह किताब न्यूयार्क टाइम्स की बेस्ट सेलर रही है। गेहूं के आटे से बनी चीजों को लेकर
डेविस के कई दावे हैं। इन दावों को खुद उनके देश और दुनिया के अन्य मुल्कों के डॉक्टर
खारिज भी करते रहे हैं। फिर भी खाते पीते तबके में एक बड़ी संख्या ऐसे लोगों की है
जो उनकी बातों को मानते हैं। डॉक्टर डेविस का दावा है कि गेहूं या उसके आटे से बनी
किसी चीज को नहीं खाना चाहिए। उसमें ग्लूटन व अन्य कई ऐसे रसायन हैं जो दिल के रोगों
व मधुमेह का कारण है। वह कहते हैं कि आज का गेहूं सौ साल पहले जैसे गेहूं जैसा नहीं
है। इसके जेनेटिक्स में कृषि विज्ञानियों ने बदलाव कर दिया है और इसे खाना ठीक नहीं।
उन्होंने अपने मरीजो का उदाहरण देकर बताया कि गेहूं छोड़ने वालों की सेहत अब पहले के
मुकाबले काफी बेहतर है।
हमारे मित्र भी ऐसा ही दावा
करते हैं कि उन्हें बहुत फायदा हुआ लेकिन पराठों की दुनिया इन फायदे नुकसान और सेहत
के नुस्खों से परे है। हां, पराठे वाली गली का हाल देखकर एक सवाल जरूर मन में उठा कि
ज्यादातर जगहों पर तो पराठे सेंक कर खाए जाते हैं और पूरियां तलकर। दोनों को ही गरिष्ठ
भोजन माना जाता है। जबकि यहां तो पराठे भी पूरी और भटूरे की जगह तलकर बनाए जा रहे हैं।
फिर सेहत के लिए क्या खाना ज्यादा बेहतर है। पूरी या पराठा। अगर पराठा तो उसमें भी
तला हुआ या सिका हुआ। अब अगर सिका हुआ तो फिर आटे का, मैदे का या फिर मिले जुले अनाज
वाला। आटे का भी है तो चोकर वाले आटे का या फिर बिना चोकर वाले का। स्वाद के रास्ते
में जब सेहत डाक्टर विलियम डेविस की व्हीट वेली जैसी चुनौतियां आती हैं तो फिर मन बेचैन
होने लगता है। खासतौर पर बात जब पराठों की हो। वैसे भी परम प्रिय पराठे, सिर्फ पराठे
वाली गली या गुड़गांव वाले मुरथल तक ही तो सीमित नहीं। अचार पराठा, बुकनू पराठा और
नमकीन जीरे वाला पराठे का स्कूली दिनों वाला संस्कार कैसे जा सकता है। बात सिर्फ हमारे
या आपके बचपन की नहीं है। अगर इतिहास मे जाए तो पंजाब अंडर द सुल्तान्स नाम की किताब
में निज्जर ने लिखा है- 1000 से 1526 के बीच के कालखंड में पंजाब के अमीर लोगों के
दरस्तख्वान में परौठे जरूर होते थे। माना जाता है कि भरवा पराठे पंजाब का चलन था जो
1947 के बाद दिल्ली में आम हो गया। तरह तरह के पराठे बनाने का चलन अब देश भर में है।
गोल, तिकोन, चौकोर, लच्छा, रूमाली, तंदूरी और मिस्सी पराठों की अलग अलग वैरायटी हैं।
बनाने में सबसे कठिन माना जाता है केरल के मालाबार का पराठा। यह कई लेयर वाला होता
है। वैसे अगर सबसे अच्छे पराठा कौन सा होता है, इसका कोई सर्वेक्षण किया जाए तो सबसे
ऊपर होगा माँ के हाथ का पराठा। माँ के हाथ के पराठों के अलावा लोगों की अपनी अपनी पसंद
होती है। मिसाल के तौर पर किसी को आलू के पराठे पसंद होते हैं तो किसी को गोभी, प्याज
या मूली। मुगलई पराठे डीप फ्राइड होते हैं और उनमें कीमा आदि भरा जाता है। पराठों के
नए साथी हैं पराठा रोल, अंडा रोल, काठी रोल और मैक्सकिन बरीतो। थोड़ा पुराने वक्त में
जाएं तो पांच सेर घी में एक पराठा बनाए जाने तक के किस्से हैं। लखनऊ के एक नवाब थे
गाजीउद्दीन। उनके वजीर आगा मीर को यह बात नागवार गुजरती थी कि नवाब का बावर्ची छह पराठों
के लिए तीस सेर घी लगाता है। आगा मीर खुद भी बावर्ची रहे थे। लिहाजा उन्होंने घी में
कटौती कर दी। अगले ही दिन से पराठों का स्वाद बिगड़ने लगा तो नवाब साहब ने पड़ताल की।
बावर्ची मुंह लगा था, उसने वजीर को ही फंसा दिया कि घी नहीं रहा तो तासीर भी चली गई।
वजीर साहब सारी बचत आपके दस्तरख्वान में ही करना चाहते हैं। बहरहाल उसके घी का कोटा
फिर से शुरू कर दिया गया। वैसे नवाबों का वक्त खत्म हो गया लेकिन बावर्चियों के हुनर
खत्म नहीं हुए। आगरा में एक मशहूर पराठे वाले हैं। दस किलो के तवे पर धीमी आंच पर सिकने
वाले उनके पराठे को खाने के बाद आप कुछ और नहीं खा सकते। पचीस तीस तरीके के पराठे होते
हैं और यहां इनका स्वाद लेने वालों में बिल क्लिंटन और परवेज मुशर्रफ तक शामिल हैं।
कुल मिलाकर पराठों के स्वाद का संसार अपरम्पार है। स्वाद के इस सुर संगम में जब व्हीट
बेली और डा़ डेविस जैसे व्यवधान आते हैं तो फिर जीभ को विराम देना मजबूरी हो जाता है
क्योंकि जीभ और मन है आपका तो दिल और लिवर भी तो आप ही का है। खाइए पर थोड़ा थोड़ा।
बहरहाल पराठों की शान में शारिक़ कैफ़ी का यह शेर और बात खत्म कि-
जिन पर मैं थोड़ा सा भी आसान हुआ हूँ
वही बता सकते हैं कितना मुश्किल था मैं
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