क्या पसंद है, लिट्टी या बाटी-दाल या चोखा

 

 

अमीर मीनाई का शेर है-

ये भी इक बात है अदावत की

रोज़ा रक्खा जो हम ने दावत की

रमजान चल रहा है और नवरात्र भी। रोजे चल रहे हैं और नौ दिन वाले व्रत भी। और हम हैं कि जी ललचाने वाली कहानियां लिख रहे हैं। भाई देखिए रोजा हो या व्रत। इसका फल तो तभी मिलेगा जब आप की इन्द्रियां पूरी तरह से नियंत्रण में हों। दिल्ली में हमारे एक बिहारी मित्र हैं। व्रत उपवास में इसीलिए यकीन नहीं रखते। वह मानते हैं कि भूख लगी हो और बढ़िया खाना सामने हो तो उनसे रुका नहीं जाता। खासतौर से अगर बढ़िया लिट्टी चोखा मिल जाए।

आजकल लंदन गए हुए हैं फेलोशिप के लिए। कुछ दिन तो होटल में यूरोप के कांटीनेंटल और ठंडे खाने को खाकर खुश होते रहे। हफ्ता भर बीता तो घर के खाने की याद आने लगी। वक्त मिला तो लंदन की गलियों में निकल पड़े लिट्टी चोखा ढूंढने। ढूंढते ढूंढते परेशान हो गए लेकिन उन्हें लिट्टी चोखा नहीं मिला। अलबत्ता एक मारवाड़ी मित्रृ के घर पर उन्हें दाल, बाटी चूरमा जरूर मिल गया। उन्हें उम्मीद है कि जल्द ही लिट्टी चोखा भी मिलेगा। बात चाहे बिहार के लोगों की हो या उत्तर प्रदेश के पूर्वी इलाके में रहने वालों की। लिट्टी या बाटी चोखा उनकी कमजोरी है। लंदन हो या बारबडोस। मारिशस हो या एंटीगुआ। भारत में कश्मीर से लेकर कन्या कुमारी और पोखरन से लेकर गंगटोक तक, यह लोग जहां भी जाते हैं, लिट्टी चोखा जरूर ढूंढते हैं और उन्हें मिल भी जाता है। भोजपुरी भाषा के विस्तार वाले इलाकों में उपलों या कंडों की आग में भुनती सत्तू व मसालों से भरी लिट्टियों की खुशबू आपको जरूर मिलेगी। लेकिन अगर वेस्ट यूपी या रुहेलखंड के इलाकों में इसे ढूंढेंगे तो आपको मिलेगी भंवरी भाटा। यहां प्रथा है कि घर में शोक हो तो चूल्हा नहीं जलता। ऐसे में घर के बाहर आग जलाकर आटे की लोई, आलू व बैंगन आदि भूनकर खाए जाते हैं।

वैसे लिट्टी चोखा का विस्तार दिल्ली, मुंबई और अवध के क्षेत्रों में दिखता है। लखनऊ और बनारस में बिहार की लिट्टी को बाटी बोला जाता है। अगर सही मायने में बाटी की बात करें तो उसका सम्बन्ध राजस्थान से है। दाल, बाटी, चूरमा को यहां का राज्य भोज कहा जा सकता है। कहते हैं कि बाटी का अस्तित्व आठवीं सदी से है। मेवाड़ के महाराणा बप्पा रावल के सैनिक जब युद्ध में जाते थे तो आटे की लोइयों को सुबह रेत में दबा जाते। दिन भर सूरज की गर्मी में तप कर पक जातीं और फिर शाम को उन्हें निकालकर ऊंट बकरी के दूध से बने दही के साथ खाया जाता। बाद में फिर व्यापारियों का मेवाड़ में आना हुआ। उन्होंने बाटी को दाल के साथ खाना शुरू किया। किवदंति यह भी है कि महारानी जोधाबाई के साथ दाल बाटी मुगलों के दस्तरखान तक पहुंची और फिर दिल्ली दरबार से यह डिश राजस्थान के शाही खाने के तौर पर प्रचलित हुई। चूरमा मीठे आटे से बना होता है। जो इसके साथ खाया जाता है। एक राजस्थानी मित्र ने तो दावा किया कि कोविड के दौरान घी के साथ दाल, बाटी चूरमा इम्युनिटी बूस्टर साबित हुआ है। इसके साथ लहसुन लाल मिर्च की चटनी और हरी मिर्च के टिकोरे शरीर में ऐसा रसायन तैयार करते हैं जो रोगों से लड़ने की क्षमता पैदा करता है। खैर दाल बाटी से वापस लिट्टी पर आते हैं। माना जाता है कि यह मेहनतकशों व किसानों का भोजन है। इसकी शुरुआत मगध क्षेत्र से मानी जाती है। पटना के आसपास यह सबसे ज्यादा लोगों के मुंह लगी है।  लिट्टी चोखा के बारे में किस्सागो बताते हैं कि पहले मजदूरों को मजदूरी में आटा, आलू, तेल व नमक दिया जाता था। आसानी से उपलब्ध उपलों की आग में आटे की लिट्टी बनाकर उन्हें भून लिया जाता था। बिहार की लिट्टी में लाल मिर्च के अचार वाले मसाले के साथ  तेल सत्तू मिलाकर उसमें भरा जाता है। यूपी में लिट्टी को बाटी का नाम करीब सौ पहले बनारस के मारवाड़ियों ने दिया। तब तक यह अमीरों का भोजन बन चुका था। सिर्फ आलू की जगह भूने हुए बैंगन, आलू व टमाटर से बना हुआ चोखा, साथ में हांडी में पकी गाढ़ी दाल और चावल, चटनी व खीर  भी इसके साथ जुड़ गए। इसकी दावत बाग बचीचों में होती है और इन्हें तैयार करने वालों में ज्यादा पुरुष होते हैं। बाटी चोखा खिलाने के लिए कई शहरों में अब एयर कंडीशंड एथिनिक रेस्त्रां खुल गए गए हैं जहां चारपाई, लालटेन, जमीन की बिछावन, बांस की सीलिंग और चक्की में सामने पिसते आटे व मसालों की उपलब्धता होती है। लखनऊ में बाटी चोखे का दुकानों में आगमन 1978 का बताया जाता है। यहां दारुलशफा में बागी बलिया के नाम से बाटी बिकनी शुरू हुई। पटना, बनारस, लखनऊ और फिर दिल्ली तक पहुंचते पहुंचते कई जगहों पर बाटी के साथ चोखा गायब हो जाता है और उसकी जगह ले लेता है मटन लेकिन ज्यादातर जगहों पर यह व्यंजन शाकाहारी ही है। इंदौर, उज्जैन और मध्य प्रदेश के कई इलाकों में बाटी चोखे से मिलता जुलता दाल बाफला मिलता है। खैर बात हमारे विदेश गए मित्र के लंदन में लिट्टी चोखा खोजने से शुरू हुई थी। ऊपर वाला उन्हें जल्दी उनकी मनपसंद थाली दिलाए। बाकी खाने पीने के शौकीनों के लिए जफर इकबाल साहब का एक नसीहत भरा शेर और बात खत्म कि-

ये हम जो पेट से ही सोचते हैं शाम सहर
कभी तो जाएँगे इस दाल-भात से आगे

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