लोग कहेंगे घी वाली पार्टी के विधायक जी हैं

  in खुले मन से 

शहरयार का एक मशहूर शेर है-
तेरे वादे को कभी झूठ नहीं समझूंगा
आज की रात भी दरवाजा खुला रखूंगा
हमारे वोटरों के दरवाजे भी हमेशा खुले ही रहते हैं। वादों पर हमें बड़ा भरोसा रहा है। नेता तोड़ते रहते हैं और हम उम्मीद जोड़ते रहते हैं। अब मामला वादों से आगे चला गया है। जीते तो मुफ्त का वादा। पहले कभी गरीबी हटाओ नारा था। गरीबी तो हटी नहीं, गरीब किनारे लगते गए। अमीर और अमीर हुए, गरीब और गरीब होते चले गए। नेताओं ने लोगों को सिर्फ जेब से गरीब नहीं बनाया। उन्हें दिमागी तौर पर भी भिखारी बना दिया है। आज हालत यह है कि मुफ्त के मोबाइल सिम को लेने के लिए लोग आधी रात से लाइन में लग जाते हैं। सियासत के मैनजर जानते हैं कि अब मुफ्त के लॉलीपॉप का जमाना है। प्रबंधक चुनावों के धंधे से पहले रोजमर्रा की चीजें बेचने वाली कंपनियों में रहे होते हैं। वह जानते हैं कि इलेक्शन के कारोबार में कस्टमर यानी वोटर को क्या चाहिए ?
अब देखिए न। जनता का तेल निकालने के बाद अब मुफ्त घी देने के वादे हैं। इस बार पंजाब में 25 रुपये किलो के हिसाब से हर गरीब को दो किलो घी देने का वादा एक पार्टी ने किया। मतलब, जितने में मॉल में एक पानी की बोतल मिलती है, उतने में दो किलो घी मिलेगा। साथ में दस रुपये किलो के हिसाब से पांच किलो चीनी भी मिलेगी। घी में शक्कर सानो, खाओ और सेहत बनाओ। सिर्फ पंजाब में ही नहीं। यूपी में कुपोषित गरीब बच्चों को घी और पाउडर दूध देने का वादा किया गया है। राम जाने, बेचारों को दूध-घी हजम हो पाएगा भी या नहीं।
फ्री स्मार्ट फोन, लैपटॉप और वाई-फाई तो बंटेगा ही। बिजली और पानी मुफ्त देने के वादे पहले भी कई सरकारें कर चुकी हैं। इस बार प्रेशर कुकर भी मिल सकता है। गोवा में तो एक पार्टी ने वादा किया है कि छात्रों को हर महीने पांच लीटर पेट्रोल मुफ्त मिलेगा। दक्षिण भारत इस मामले में हमसे कहीं आगे रहा है। वहां नेता तो पिछले कई चुनावों से मुफ्त खाना, कलर टीवी और सिलाई मशीन देते रहे हैं। फिलहाल पांचों राज्यों की जनता को इंतजार है नतीजों का। घी मिलेगा या लैपटॉप, दूध मिलेगा या पेट्रोल, यह सब-कुछ नतीजों पर ही निर्भर करता है।
इस बार चुनावों के नतीजे कुछ इस अंदाज में पेश हो सकते हैं। फलां राज्य में नहीं मिल पाएगा मुफ्त घी। राज्य में फ्री पेट्रोल देने वालों की जीत। जैसा कि आप जानते हैं कि इस बार चुनाव में नेताओं ने दल बदल करने में अभूतपूर्व सौहार्द दिखाया है। इस हद तक कि उन्हें पार्टी या विचारधारा के आधार पर तो पहचानना मुश्किल ही होगा। उनकी पहचान हो सकती है कुकर वाली पार्टी के विधायक या फिर घी वाली पार्टी के एमएलए। देश की जनता भी जान चुकी है कि गरीबी-बेरोजगारी दूर करने, जात-पात खत्म करने और खुशहाली लाने जैसे चुनावी वादों में कुछ रखा नहीं है।
वोटर के लिए गिफ्ट के साथ-साथ अपनी जाति और अपने मजहब वाला देखना तो बनता है। जाति-धर्म का मिलान हो जाने के बाद भी जनता चाहती है कि पार्टियां तुरंत दान महा कल्याण करें। पंचायत और नगर पालिका जैसे चुनावों में तो वोटर मतदान से पहले ही साड़ी, बिंदी, दारू और घड़ी जैसी चीजें लेकर कीमत वसूल कर लेते हैं। बड़े-बड़े क्रांतिकारी संगठनों के आंतरिक चुनाव दारू-मुर्गे की पार्टियों और बड़े संगठनो के पदाधिकारी फाइव स्टार दावतों के जरिए चुनकर आते हैं। कुल मिलाकर राजनीति ने मुफ्तखोरी को हमारा राष्ट्रीय चरित्र बना दिया है।
मुफ्त का माल उड़ाने के ख्वाहिशमंद वोटरों से नेताओं को कभी डर नहीं लगता। ऐसे वोटरों में कभी वह आग नहीं होती, जो अपनी सरकार से यह सवाल पूछ सके कि आपकी कानून व्यवस्था इतनी खराब क्यों है? कभी ऐसे सवाल नहीं उठते कि तुम्हारी डिवेलपमेंट की परिभाषा क्या है? हां, अगर बदलाव चाहते हैं, तरक्की पसंद करते हैं तो मुफ्तखोरी भूलनी होगी। सही लोगों का चुनाव करना होगा। अगर ऐसा किया तो फिर हातिम शेख जहरुद्दीन का यह शेर आप जैसे लोगों के लिए ही तो है-
किया था दिन का वादा रात को आया तो क्या शिकवा
उसे भूला नहीं कहते जो भूला घर में शाम आया

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