अंधेरी रात, गहरा समुद्र और एक छोटी सी नाव



एक ख्वाब सरीखी रात है। अंडमान सागर के गहरे पानी में सैकड़ों जुगनू तैरते नजर आ रहे हैं। यह बायोल्युमिनसेंस (पानी के जुगनू) हैं। रोशनी में नंगी आंखों से इन्हें नहीं देखा जा सकता। उड़ने वाली मछलियां थोड़ी दूर पर उछल उछल कर पानी में गोते लगा रही थीं। इन्हें फ्लाइंग फिश भी कहते हैं। मैं अपने साथी संपादक राजेश मित्तल के साथ एक पतली सी नाव में डरा-सहमा चप्पू चला रहा हूं। इस नाव को कयाक कहते हैं। कयाक के सहारे एक खौफ को हराना है। वह है पानी से डर। तैरना आता नहीं है। उस पर तेज हवाएं और जोरदार बारिश भी हो रही है। ईश्वर, लाइफ जैकेट और क्याकिंग ट्रेनर का ही सहारा है। हमारे आसपास ही छह और साथी तीन ऐसी ही नावों में है। किसी को कयाकिंग का कोई तजुर्बा नहीं है। धीरे धीरे किनारे और मैनग्रोव्स जंगलों से हम काफी दूर निकल आए हैं। थोड़ी घबराहट हो रही थी क्योंकि पानी की लहरें अचानक ऊपर नीचे होने लगी थीं। शायद तेज हवा की वजह से। उस पर बाजुओं पर जोर बढ़ता जा रहा था। लगातार चप्पू चलाने की आदत जो नहीं। लहरों ने थोड़ा और तेज उछाल लेना शुरू कर दिया था।

कयाकिंग के किस्से को एक छोटा सा ब्रेक। पहले अंडमान यात्रा की पृष्ठभूमि। यह हमारा ऑफीशियल ट्रिप था। टाइम्स ग्रुप के भाषायी अखबारों के संपादक हर साल ऐसी यात्रा पर जाते हैं। इसमें भविष्य की नई योजनाओं पर चर्चा थोड़े अनौपचारिक वातावरण में होती हैं। प्रबंधन और एचआर से जुड़े लोग भी होते हैं। इस साल यह आयोजन अंडमान में था। पिछले साल करावी थाइलैंड गए थे। अंडमान भी करावी से ज्यादा दूर नहीं। यहां पहुंचने के लिए सबसे पहले पोर्ट ब्लेयर पहुंचे। लखनऊ से प्लेन के जरिए वाया कोलकाता। शुरुआत के दो दिन पोर्ट ब्लेयर रहना हुआ। फिर हम एक छोटे क्रूज़ से हैवलॉक द्वीप पहुंचे। पानी को लेकर एक अंजाना सा डर हमेशा से रहा। बचपन में एक बार हरिद्वार और एक बार देहरादून के सहस्त्रधारा के एक कुंड में डूबने से बाल बाल बचा। फिर भी कोशिश रहती है कि डर के पार जाऊं। लिहाजा कुछ तूफानी करने के इरादे से अंडमान पहुंचा। यहां आए तीन दिन हो चुके थे। दोपहर में स्कूबा डाइविंग के लिए हैवलॉक आइलैंड के एक तट पर जाना हुआ। समुद्र के भीतर ले जाने वाले इस साहसिक खेल से पहले ट्रेनिंग का एक सेशन होता है। ट्रेनिंग से भी पहले एक फॉर्म भरवाया जाता है। इसमें आप के शरीर से जुड़ी जानकारियां पूछी जाती हैं। बीमारियों और इलाज से भी जुड़े सवाल होते हैं। फिर अगर आपकी उम्र पैंतालिस से ऊपर है तो पूछताछ करने वाला और ज्यादा सतर्क हो जाता है। फॉर्म भरने से पहले मैने बता दिया कि मैं रोज रात को सोते वक्त ब्लड प्रेशर की एक गोली खाता हूं। इतना कहना था कि ट्रेनर ने हाथ जोड़ लिए। उसने कहा कि बीपी वालों के साथ स्कूबा जान का जोखिम है। एक दो लोगों के पानी के भीतर हार्टफेल होने के किस्से भी सुना दिए। साफ बोला कि पहले अपने फिजीशियन से प्रमाणपत्र लेकर आओ। इस बात का कि आप के लिए स्कूबा सुरक्षित हैं। मैं झूठ बोल देता तो शायद यह नौबत नहीं आती। पर ऐसे मामलों में झूठ नहीं बोलना चाहिए। सिर्फ इसलिए नहीं कि आप मुसीबत में पड़ सकते हैं। या आपको नुकसान पहुंचने पर स्कूबा ट्रेनर की मुसीबत हो सकती है बल्कि इसलिए भी आप एक टीम के साथ गए हैं। आप के साथ होने वाला कोई हादसा पूरी टीम के लिए दिक्कत खड़ा कर सकता है। लिहाजा उत्साह को मारना पड़ा। मायूस होकर रिसॉर्ट लौट आया।
उसी शाम क्याकिंग का कार्यक्रम था। इसके लिए ज्यादातर साथियों ने मना कर दिया। सिर्फ आठ लोग तैयार हुए। हमें अपनी नावें अंधेरा होने के बाद ही समुद्र में उतारनी थीं। नाव यानी कयाक। दुनिया भर के देशों में कयाकिंग होती है। उत्तरी आर्कटिक के एक्सिमो के बारे में कहा जाता है कि सबसे पहले उन्होंने इस तरह की नावों का इस्तेमाल किया था। व्हेल के कंकाल और सील मछली की खाल से भी इन्हें पहले कभी बनाया जाता रहा है। अब तरह तरह की कयाक आती हैं जिन्हें अलग अलग किस्म की धातुओं या प्लास्टिक से बनाया जाता है। बहरहाल हमारी कयाक दो सीटर थी। हमनें इन्हें पहले कभी नहीं चलाया था। हमारे ट्रेनर्स में एक नेवी से रिटायर कयाकिंग चैंपियन थे तो एक लड़की भी जिसके पिता बर्मा से थे तो मां बंगाली। वह अच्छी हिन्दी बोल रही थी। मैं काफी डरा हुआ था, उसने कहा आप चिंता मत करिए। लाइफ जैकेट तो हैं ही, हम लोग आसपास ही रहेंगे। पानी में नाव पलटी तो बचा लेंगे। इस बीच ट्रेनर ने बताया कि कयाक कैसे चलानी है, चप्पू कैसे पकड़ते हैं। दाये मोड़ने के लिए बांया चप्पू और बांये मोड़ने के लिए दायी तरह का चप्पू चलाना होगा। आगे पीछे करने के लिए चप्पू चलाने का अलग तरीका था। अब नावों को पानी में उतारने की तैयारी थी। हम लोग पहले ही लाइफ जैकेट पहनकर तैयार थे। एक चप्पू और एक पानी की बोतल सभी को दी गई। मुझे कोई खास प्यास नहीं लगी थी। लिहाजा पानी की बोतल देखकर अजीब लगा। ट्रेनर ने कहा इसे ध्यान से रखिए, थोड़ी देर में जरूरत पड़ेगी।


हमारे ट्रेनर उन्नी और उनकी मददगार विन्नी की नाव सबसे आगे थी। उन्होंने पहले हम सबको पहले किनारे पर चप्पू व नाव चलाने की शुरुआती ट्रेनिंग दी। थोड़ी हड़बड़ी और हड़बड़ाहट के बाद हमें समझ आ गया कि चप्पू कैसे चलाने हैं। हमने और साथी राजेश मित्तल ने तय किया कि हम सिर्फ ट्रेनर की नाव के पीछे रहेंगे। जिधर वह जाएगा, उधर चलेंगे और चप्पू साथ साथ ही चलायेंगे। हमारी योजना ठीक रही। बाकी नावों में इतना बढ़िया कोआर्डिनेशन नहीं था। शायद नाव चलाने से पहले ठीक से योजना नहीं बनायी थी। एक दो नावें मैनग्रोव्स की तरफ जानें लगीं तो दूसरी गहरे पानी की ओर। साथ चल रहे ट्रेनर ने उनके करीब जाकर फिर से सही तरीका बताया। फिर सारी नावें साथ साथ आगे बढ़ने लगीं। अब हम समुद्र में काफी आगे आ चुके थे। हमारे माथे पर एक बैट्री लाइट लगी थी जो शुरुआत में जलाये रहने को कहा गया था। अब ट्रेनर ने कहा कि सभी लोग लाइट बंद करें। हमने अपनी लाइटें बुझा दीं। घुप्प अंधेरा हो गया। अंधेरा होते ही ट्रेनर ने कहा कि अब नाव में चप्पू चलाइए और पानी को देखिए। ऐसा करते ही हमें समुद्र के पानी में सैकड़ों चमकदार जुगनू चमकते हुए नजर आए। गजब का रोमांचकारी दृश्य था। उन्नी ने बताया कि यह बेहद सूक्ष्म माइक्रोब्स हैं जिन्हें हम दिन में नंगी आंखों से नहीं देख सकते। उनके मुताबिक यह नन्हें जीव ह्वेल का पसंदीदा आहार हैं। इस बीच पीछे से आवाज आई, वह देखो फ्लाइंग फिश। हमने लाइट जलायी और फोकस किया। सामने मछलियां हवा में उड़ उड़कर पानी में कूद रही थीं। हम सब बेहद रोमांचित थे तभी ट्रेनर चीखे-लाइटें बंद करिए, नहीं तो फ्लाइंग फिश हमला कर सकती है। हमनें तुरंत लाइटें बंद कर दीं। उन्नी ने बताया कि इन मछलियों का अगला हिस्सा बेहद नुकीला होता है। यह रोशनी पर छलांग लगाती हैं। ऐसे में वह शरीर के जिस हिस्से पर गिरेंगी, वहां गहरा छेद बना सकती हैं। इस बात ने हमें डरा दिया। दोबारा लाइट जलाकर फ्लाइंग फिश देखने की हिम्मत न हुई। अब हम काफी आगे आ चुके थे। कुछ दूर पर पानी के जहाज और एलीफैंड आइलैंड नजर आ रहा था। वह खुले समुद्र में था। उन्नी ने बताया कि वह लोग हैवलॉक से एलीफैंट आईलैंड तक इन्हीं नावों से चले जाते हैं पर यह काम प्रशिक्षित लोग ही कर सकते हैं। समुद्र में ज्यादा आगे जाने पर पानी का करेंट बदल जाता है। उसे संभाल पाना सबके बस की बात नहीं। वैसे भी हम कौन सा ज्यादा आगे जाना चाहते थे। एक घंटे का वक्त हो चुका था। इस बीच साथी राजेश ने अपने मोबाइल से उस अंधेरे में कुछ फोटो निकाल ही लिए। सबके हाथ थक चुके थे। पानी की बोतल भी खाली हो चुकी थी क्योंकि पसीना काफी बहा था। लिहाजा प्यास भी खूब लगी। अब हम सब किनारे की ओर चलने लगे। धीरे धीरे हम वापस हैवलॉक के उसी किनारे पर पहुंच गए, जहां से चले थे। समुद्र में ज्वार आ चुका था। पहले जहां जमीन थी, अब वहां भी पानी था। खैर हम पानी के खौफ को जीत चुके थे। कम से इस रात तो हम ऐसा कर पाए-

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