जाति ही पूछो साधु की


कबीर दास जी ने कहा है-
जाति न पूछो साधु की, पूछि लीजिए ज्ञान। 
मोल करो तलवार का, पड़ी रहन दो म्यान॥
हाल ही की बात है। एक मित्र, जो अब सरकारी अफसर हैं, उनका फोन आया। कहने लगे-भाई साहब 18 को शादी है छोटे भाई की। आइएगा जरूर। मैंने कहा-जरूर आऊंगा। उन्होंने दोबारा जोर देकर कहा-नहीं भाई साहब आपकी उपस्थिति जरूरी है, आप तो जानते ही हैं, हम लोग कान्यकुब्ज ब्राह्मण हैं। भाई की शादी दूसरी जाति में हो रही है, इसलिए माहौल ठीक नहीं। आप खड़े होंगे तो ठीक रहेगा। मैं सोच में पड़ गया। अच्छे खासे संपन्न लोग। उससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण यह कि सिविल सर्विसेज पास करने वाली विद्वता भी है। इसके बावजूद गैर बिरादरी में विवाह को लेकर इतना अपराधबोध। समाज का यह दबाव क्यों है? आखिर दो पढ़े-लिखे शख्स जाति बंधन भूलकर एक-दूसरे से जुड़ रहे हैं, तो इसमें रिश्तेदारों और पड़ोसियों को क्यों दिक्कत होनी चाहिए।
लेकिन दिक्कत है। लोग परेशानी में रिश्तेदार की मदद भले ही न करें, पर शादी ब्याह में अगर बिरादरी से बाहर निकले तो नाक-भौं जरूर चढ़ा लेंगे। जीजा-फूफा आने से मना कर देंगे। ताऊजी ऐसे मुंह फुलाकर बैठ जाएंगे कि मानो दुनिया ही उजड़ गई हो। आजादी के इतने साल बीत गए। दुनिया कहां से कहां पहुंच गई पर पुरानी पीढ़ी अब भी बदलने को तैयार नहीं। इसकी वजह है। लोग कबीर दास जी की नहीं सुनते, नेताओं की सुनते हैं। समाज के भीतर राजनीति की जड़ें इतनी गहरी हैं कि राजनीति में जाति ही सबसे पहले पूछी जा रही है। उत्तर प्रदेश के चुनाव होने वाले हैं। चारों तरफ गंध मची हुई है। तेरी जाति, मेरी जाति। इस जाति का वोटबैंक उस जाति का वोटबैंक। आदमी इंसान नहीं, एक जाति है, एक खास जाति का वोट है। आम आदमी तो आम आदमी, महापुरुषों और राष्ट्रनायकों का हाल भी ठीक नहीं। केंद्र सरकार बाबासाहेब भीमराव अम्बेडकर की जयंती 10 दिन तक मना रही है। उत्तर प्रदेश सरकार भी यह साबित करने में कतई पीछे नहीं कि बाबासाहेब का उनसे बड़ा अनुयायी कोई नहीं। जो पार्टियां सरकार में नहीं हैं, वह भी बाबासाहेब की जय जयकार में लगी हैं। सवाल उठता है किस लिए? क्या वाकई में इन सभी राजनीतिक दलों की श्रद्धा बाबासाहेब के विचारों में है या फिर दलित नायक की उस छवि में, जो आजादी के बाद से अब तक बड़े करीने से गढ़ी गई है, जो वोट दिला सकती है।
बाबासाहेब राष्ट्रनायक थे। वो देश का भला करना चाहते थे। जातिवाद खत्म करना चाहते थे। वो चाहते थे कि ऐसा स्वस्थ समाज हो, जिसमें जातियों का अस्तित्व न हो। भेदभाव और ऊंच-नीच न हो। अमीरी-गरीबी और अर्थशास्त्र को लेकर उनके मौलिक विचार थे। इनका जिक्र नोबेल पुरस्कार से सम्मानित अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन तक ने किया। क्या उनके आर्थिक विचारों का जिक्र नेता करते हैं? सही बातों से वोट नहीं मिलते। लिहाजा कोई भी दल जातिवाद मिटाने की बात नहीं कर रहा। सबका फोकस सोशल इंजीनियरिंग है। मतलब कैसे अधिकतम जातियों का वोट अपने साथ जोड़ें। यही वजह है कि राष्ट्रनायकों को उनके व्यक्तित्व और कृतित्व के बजाए जातियों से जाना जाता है। यह हमें नेताओं ने ही बताया है कि गांधीजी बनिया थे, डॉ राजेन्द्र प्रसाद कायस्थ थे, वल्ल्भभाई पटेल कुर्मी, परशुराम ब्राह्मण और महाराणा प्रताप क्षत्रिय थे। सैम पित्रोदा जैसे आईटी क्रांति लाने वाले शख्स को बढ़ई नेताओं ने ही बताया। उससे आगे की कड़ी में सियासी मैनेजर आ गए हैं। सियासी गठजोड़ अब इस बात पर नहीं होंगे की दलों के विचार मिलते हैं या नहीं। गठजोड़ इस बात पर होंगे कि वोटबैंक जुड़ते हैं या नहीं। अब सवाल है कि क्या यह जातिवाद ऐसे ही चलता रहेगा। जवाब है नहीं, कुछ तो बदलेगा। हमारे ब्राह्मण मित्र के भाई जैसे हजारों नौजवान लड़के-लड़कियां अब दूसरी जातियों में शादी कर रहे हैं। वही इस ऊंच-नीच को मिटाएंगे। देश को बदलेंगे। फूफा-ताऊ, जीजा और मामा टोका-टाकी करते हैं और करते रहेंगे। उनके लिए दूसरी जातियों में शादी करने वालों की तरफ से सुदर्शन फाकिर का यह शेर-
कुछ देर ठहर जाइये ऐ बंदा ए इंसाफ
हम अपने गुनाहों में ख़ता ढूंढ रहे हैं
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