सात समुंदर पार, पहली बार
सन दो हजार छह और तारीख नौ अगस्त। रात साढ़े दस बजे के करीब का वक्त होगा। विशालकाय डैने फैलाए केएलएम एयरलाइंस की फ्लाइट संख्या केएल 872। पहली बार सात समुद्र पार की यात्रा पर निकलने का रोमांच अद्भुत था। फ्लाइट पर चढ़ने से पहले ही पांव तकरीबन हवा में थे। शायद नील आर्मस्ट्रांग ने अंतरिक्ष मे भी इतना रोमांच नहीं महसूस किया होगा जितना डच एयरलाइंस के इस बोइंग विमान को देखकर तब हो रहा था। आज ऐसी कोई सनसनाहट अब नहीं होती। यूनाइटेड नेशन की आठ इंटरनेशनल कान्फ्रेंस में शामिल होने के लिए तकरीबन आधी दुनिया तो देख ही चुका हूं। हां् पर तब ऐसा नहीं था। इंटरनेशनल एयरपोर्ट की चमक दमक ने मन मस्तिष्क को चकाचौंध सा कर दिया था।
यात्रा पर आगे निकलने से पहले चलिए थोड़ा पीछे ले चलते हैं। करीब बारह तेरह साल पहले। पुराने लखनऊ के चौपटियां जियालाल फाटक के एक लोअर मिडिल परिवार से निकला एक युवा। जो कभी ट्यूशन पढ़ाता था तो कभी साइकिल पर लॉटरी बेचता। कभी खस्ते पूरी की दुकान खोल लेता तो कभी राजनीति में जाने के लिए छात्रसंघ के चुनाव में दांव आजमाता। वह जो उड़ना चाहता है दौड़ना चाहता है गिरना भी चाहता है बस रुकना नहीं चाहता। इन सारे संघर्षों के बीच अचानक उसका रास्ता पत्रकारिता की ओर मुड़ गया। एक ऐसी मंजिल जहां सब कुछ था। उड़ना, दौड़ना, गिरना, संभलना और लगातार चलते रहना। बिना रुके। पत्रकारिता में बारह साल हो चुके थे। कठिन संघर्षों से भरे। कुछ सांध्य दैनिकों के बाद पांच साल दैनिक जागरण में रिपोर्टिंग की। छह साल के करीब हिन्दुस्तान में हो रहे थे । डेवलपमेंट जर्नलिज्म का रास्ता मैने खुद चुना था। उस दौर में जब सबको राजनीति या क्राइम रिपोर्टिंग में ही मजा आता था। रास्ता चुना स्वास्थ्य शिक्षा, पर्यावरण और सफाई जैसे विषयों पर लिखने पढ़ने का। सेहत की ग्राउंड रिपोर्टिंग खूब की। एक दिन झोला छाप डॉक्टरों से जुड़ी मेरी एक ग्राउंड रिपोर्ट हिन्दुस्तान के पहले पन्ने के शीर्ष पर छपी।
उसी दिन कल्पना जैन नाम की एक महिला हमारे संपादक नवीन जोशी से मिलने आईं। पता चला कि वह टाइम्स ऑफ इंडिया की हेल्थ एडिटर रही हैं। उस वक्त वह काइज़र फाउंडेशन अमेरिका की इंटरनेशनल फैलो थीं। फिलहाल वह हॉवर्ड में हेल्थ कॉम्युनिकेशन पर काम करती हैं। खैर, कल्पना जी उस पत्रकार से मिलना चाहती थीं जिसने झोलाछाप डॉक्टरों पर खबर लिखी थी। नवीन जी ने मुझे बुलवाया, मुलाकात कराई और थोड़ी बातचीत हुई। शाम को ही पता चल गया कि वह मुझे काइजर फाउंडेशन की फैलोशिप देना चाहती हैं। यह फैलोशिप एचआईवी एड्स के आर्थिक सामाजिक पहलुओं पर रिपोर्ट करने के लिए दी जाती थी। एक दो दिन की औपचारिकता के बाद मेरे पास मेल आ गया। मेरे अलावा राजस्थान पत्रिका के हरेन्द्र और लोकसत्ता के शेखर देशमुख को भी यह फेलोशिप मिली थी। उस वक्त हम तीनों को छह छह हजार डॉलर देश घूमकर रिपोर्ट करने के लिए दिए गए थे। उस वक्त हमारी जितनी सालाना सैलरी थी, उसकी दोगुनी के करीब रकम हमें सिर्फ घूमकर रिपोर्ट करने के लिए दी गई थी। उन पैसों से सुधीर मिश्र ने हिमाचल से लेकर हैदराबाद और जयपुर से लेकर इम्फाल व बर्मा तक की खबरें लिखीं। इसी बीच एक उपलब्धि और मिली कि काइज़र ने भारत के कुछ पत्रकारों को टोरंटो में होने वाली वल्र्ड एड्स कान्फ्रेंस में ले जाने का फैसला किया। करीब दस दिन के लिए। सारा खर्च काइज़र फाउंडेशन को करना था। इसका पता चलते ही मैने शेखर और हरेन्द्र से बात की। फ्लाइट एम्सटर्डम में रुक कर टोरंटो जानी थी। उसी तरह लौटते वक्त भी एम्सटर्डम में कुछ घंटे रुकना था। हम तीनों ने दस दिनों के अलावा पांच दिन का एक और प्लान बनाया। यूरोप घूमने का। वाया एम्सटर्डम। उसी टिकट में थोड़ा बदलाव कराकर लौटने की तारीख 19 अगस्त की जगह 25 अगस्त करा ली। साथ ही एम्सटर्डम, पैरिस, डेनहॉग और फ्रैंकफर्ट में सबसे सस्ते होटल भी बुक करा लिए। अब हमारे सामने फ्लाइट खड़ी थी। मेरे दिमाग मे मेरा बीता हुआ कल फ़्लैश बैक के साथ तेजी से दौड़ रहा था। बदलते वक्त की आहट साफ सुनाई दे रही थी। तब तक साथ में हरेन्द्र और शेखर देशमुख के अलावा लखनऊ से ही मनीष श्रीवास्तव भी आ चुके थे जो उन दिनों दैनिक जागरण का प्रतिनिधत्व कर रहे थे। हमने जहाज की सीढ़ियों पर चढ़ना शुरू कर दिया
क्रमश:

Comments

Popular Posts