लिमोज़िन की सवारी
लिमोज़िन की सवारी
फ्लाइट की सीढ़ियां चढ़ते वक्त धड़कने धीरे धीरे काबू में आना शुरू हो चुकी थीं। केएलएम एयरलाइंस का यह बोइंग उन सभी जहाजों से बहुत बड़ा था, जिन पर अब तक मैने यात्रा की थी। अंदर से तीन हिस्सों में बंटा हुआ था। बीच में चार लोगों के साथ बैठने की एक लेन। दोनों किनारों पर तीन तीन लोग एक साथ बैठ रहे थे। मेरी सीट खिड़की वाली थी। भीतर गए तो पता चला कि कई और परिचित भी फ्लाइट में हैं। इनमें दैनिक भास्कर की रुमनी घोष, इंडियन एक्स्प्रेस श्रीनगर की तौफीक रशीद, हिन्दुस्तान दिल्ली के मेरे वरिष्ठ साथी अरुण त्रिपाठी, विमेन फीचर सर्विस से जुड़ी सीनियर जर्नलिस्ट अंगना पारेख और कुछ अन्य दोस्त। आधी रात हो रही थी। फ्लाइट टेक ऑफ होने के कुछ देर बाद ही डिनर सर्व होना शुरू हुआ। सबसे पहले एयर होस्टेज ने ड्रिंक ऑफर करनी शुरू की।
चूंकि लोकल फ्लाइट में ड्रिंक सर्व नहीं होते तो यह भी पहला ही अनुभव था। औरों की देखा-देखी मैने भी एक फ्रैंच व्हाइट वाइन की बॉटल ले ली। प्लास्टिक का एक ग्लास और कुछ नट्स भी साथ मिले। नट्स जायकेदार थे। पर न वह मूंगफली थे, न चने या काजू। मूंगफली और चने के बीच वाली कोई चीज थी। रैपर पर लिखा था-मेड इन टर्की। साथ के काफी लोग हार्ड ड्रिंक्स ले रहे थे। विश्व के श्रेष्ठ शराब के ब्रांड एयर होस्टेज की ट्रॉली में सजे हुए थे। मैने उन्हें देखा पर कोई लालच नहीं किया। एक वाइन लेने के बाद खाना लिया। वह भी वेज फूड। स्विस बटर तो जर्मन ब्रेड। खाना खाने के बाद सामने लगे स्क्रीन को समझना शुरू किया। हेडफोन कैसे इस्तेमाल करने हैं और उसके रिमोट से चैनल कैसे बदलने हैं, यही समझने में घंटा भर गुजर गया। जब तक सीख पाए तब तक नींद आने लगी। नीचे शायद खाड़ी वाले देश थे। खिड़की से झांकने पर अंधेरे में नीचे कुछ आग के कुंए नजर आ रहे थे। शायद तेल के कुंए रहे होंगे। धीरे धीरे नींद आना शुरू हो चुकी थी। दो घंटे बीत रहे थे। पांव अकड़ने लगे थे। पांवों को सीधा किया, फिर सो गया। बीच बीच में नींद खुलती रही। फिर सोता रहा। आखिर जब आंख खुली तो देखा कि एयर होस्टेज चाय नाश्ता सर्व कर रही हैं। सुबह हो चुकी थी। चाय पीते पीते ही एनाउंसमेंट शुरू हो चुकी थी कि फ्लाइट अब लैंड करने वाली है। हम अब शीफॉल एयरपोर्ट पर उतरने वाले थे। विदेश की धरती पर अपना यह पहला कदम था। थोड़ी घबराहट भी जरूर थी। एक बैग हाथ में था। बाकी सामान फ्लाइट से दूसरे प्लेन में शिफ्ट हो जाना था। एम्सटर्डम एयरपोर्ट यूरोप का तीसरा सबसे व्यस्त माना जाने वाला हवाई अड्डा है। 1916 में यह एक फौजी एयरपोर्ट के तौर पर शुरू हुआ था। नौ किलोमीटर इलाके में फैला यह हवाई अड्डा कई फ्लोर का था। कई टर्मिनल थे।
कुछ समझ नहीं आ रहा था कि जाना किधर है। चुपचाप रास्ता सूझा कि हरेन्द्र के पीछे लग लो। इस मामले में वह अनुभवी था। वह पहले लंदन की यात्रा कर चुका था। लिहाजा हमारी इस पहली विदेश यात्रा का गाइड वही था। इमीग्रेशन से गुजरने के बाद हम अपने उस टर्मिनल की ओर रवाना हो गए, जहां से चार घंटे बाद हमें टोरंटो की अगली फ्लाइट लेनी थी। एयरपोर्ट बेहद शानदार था। ज्यादातर साथियों ने अपने गेट के बारे में पता करने के बाद तय किया कि घूमा जाए। मेरे साथ हरेन्द्र और शेखर थे। मन किया कि कुछ खाया जाए। अपने पास कैनेडियन डॉलर्स थे। यह हमने दिल्ली एयरपोर्ट से ही ले लिए थे। हां, हमारा फोन तब काम नहीं कर रहा था। चूंकि फोन का खर्च बचाना था लिहाजा इंटरनेशनल कार्ड हमने लिया ही नहीं था। तब वाई फाई या वाट्सअप भी नहीं होता था। खैर भूख लगनी शुरू हुई तो हम तमाम दूसरे इंटरनेशनल ब्रांड्स को छोड़ मैकडॉनल्ड की ओर बढ़ गए थे। सच कहूं तो वहां तरह तरह के बर्गर की जो लिस्ट लगी थी, उसमें समझ ही नहीं आ रहा था कि किस बर्गर में क्या है। एक को शाकाहारी टाइप समझकर ऑर्डर किया तो ऑर्डर लेने वाला लड़का मुझे देखने लगा। मैने उसे ध्यान से देखा तो वह भारतीय लगा। उसने कहा कि आप बीफ खाते हैं, मैने जवाब दिया नहीं। तो उसने कहा कि आप फ्रैंच फ्राइज़ ले लीजिए। बर्गर और सॉस आप के लायक नहीं है। मन ही मन उसे धन्यवाद दिया। हालांकि मैं नॉनवेज हूं फिर भी बीफ खाने की कल्पना से ही मन सिहर उठता था। चुपचाप आराम से फ्रेंच फ्राइज खाए। फिर काफी देर तक एयरपोर्ट की चकाचौंध और गोरों से भरे माहौल को देखता रहा। एकदम अनोखा अनुभव, नयी दुनिया। तब तक अगली फ्लाइट का समय होने लगा। अंग्रेजी अखबार के एक साथी रिपोर्टर भी गजब निकले। वह एयरपोर्ट पर बैठे बैठे ही बाइलाइन लिखने में लगे थे। उनका मानना था कि अगर एम्सटर्डम एयरपोर्ट पर रुके ही हैं तो एक नाम वाली खबर यहां की डेटलाइन से क्यों नहीं। अपन को शुद्ध पत्रकारीय चिढ़ हुई। मैने यहां से खबर क्यों नहीं लिखी।
हम अब अगली फ्लाइट में थे। अगल बगल के यात्री बदल गए थे। मैं बीच वाली सीट पर था। खिड़की पर एक महिला पत्रकार थीं। मैं भीतर से डरा हुआ था। डर इस बात का कि अब हमें एम्सटर्डम से टोरंटो तक करीब छह सात घंटे तक सिर्फ अटलांटिक महासागर के ऊपर से उड़ना था। मुझे पैन एैम फ्लाइट का हादसा न जाने क्यों बार बार याद आ रहा था। टोरेंटो से दिल्ली के लिए उड़ी इस फ्लाइट को आतंकी हमले में अटलांटिक के ऊपर ही उड़ा दिया गया था। फ्लाइट उड़ने के कुछ देर बाद ही मैने एक बीयर ली और भीतर के डर से लड़ने की कोशिश करने लगा। अचानक फ्लाइट जोर जोर से कांपने लगीं। एनाउंसमेंट शुरू हुआ कि मौसम खराब है, सीट बेल्ट बांध लें। बाहर खिड़की से जोर जोर से कड़कती हुई बिजली नजर आ रही थी। मेरी हालत पतली हो रही थी। तभी साथी महिला पत्रकार ने डरी आवाज़ में पूछा अब क्या होगा? उसके जैसे ही यह सवाल पूछा, मैने जबरदस्ती की बहादुरी दिखाते हुए कहा कि कुछ नहीं, घबराओ मत सब ठीक हो जाएगा। तब फ्लाइट और जोर से झटके खाने लगी। मैने ईश्वर को याद किया। भगवान ने तुरंत प्रभाव दिखाया। झटके बंद हो गए। सब कुछ सामान्य सा। तब मैने अपनी सहयात्री से पैन ऐम वाले हादसे का जिक्र छेड़ दिया। वह डर से उबरने की कोशिश में थी। मेरी बात ने उसे और डरा दिया। उसने खुद को कंबल में और समेटा, फिर सो गयी। मुझे भी कुछ देर में नींद आ गई। बीच बीच में आंख खुलती रही। करीब आठ घंटे बाद हम अमेरिका के ऊपर उड़ रहे थे। सामने स्क्रीन पर सब समझ आ रहा था कि हम कहां कहां से गुजर रहे हैं। कुछ देर में हम टोरंटो एक पियरसन एयरपोर्ट को लैंड कर गए। कमर टेढ़ी हो चुकी थी। बदन टूट रहा था। करीब बाइस घंटे हो चुके थे दिल्ली से निकले हुए। करीब एक घंटा और लग गया। इमीग्रेशन क्लियर करके बाहर निकलते निकलते। एयरपोर्ट के बाहर बेहद सुहाना मौसम था। हल्की सी ठंडक और हवा एकदम साफ। हमें लेने के लिए एक लिमोजिन आई थी। इतनी लंबी गाड़ी हमनें पहली बार देखी थी। ड्राइवर क्या गजब स्मार्ट बंदा था। बाद में हमने देखा कि टोरंटो के सबसे स्मार्ट लोगों में ड्राइवर सबसे अव्वल थे। सब टाई सूट पहनते थे। उनमें भी बड़ी तादाद पाकिस्तानियों की थी। लिमोजिन का ड्राइवर भी पाकिस्तानी था। वह हम सबको लेकर सीएन टावर के करीब नोवोटल होटल के लिए निकल पड़ा।
क्रमश:
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