शेखर...तुम वाकई बहादुर हो
सुबह दस बजे के करीब शेखर का मोबाइल पर मैसेज़ आया-
...आफ्टर स्टेम सेल ट्रांसप्लांट प्रोसेज़ ऑफ न्यू सेल्स फार्मेशन कॉजेज फ्लक्चुएशन इन बीपी, वेट गेन-लॉस, टेरिबल वीकनेस, स्टोमच डिसऑर्डर... कुड नॉट वॉक और सिट फॉर लास्ट 10 डेज़, इट्स लाइक गोइंग टू बैक इनफैन्ट्स स्टेज़.. ..बट फ्यू डेज़ बैक आई डिसाइडेड टू टुक फर्स्ट बेबी स्टेप विदआउट सपोर्ट... इट फील लाइक बिगनिंग ऑफ ए न्यू लाइफ...
...यस, फ्यू मोर चैलेंजेज विल हैव टू फेस बिफोर गेटिंग डिस्चाच्र्ड फ्रॉम द हॉस्पिटल...
...शुड कम आउट फ्रॉम आइसोलेशन अराउंड फस्र्ट वीक ऑफ सेप्टम्बर एंड फाइनल डिस्चार्ज वुड बी अराउंड सेकेंड
...शेखर
संदेश पढ़ते ही मैं समझ गया कि शेखर की हालत ठीक नहीं है। वो मेरे बहुत करीबी दोस्तों में एक है। पहली मुलाकात 2006 में मुंबई में हुई थी। काइज़र फाउंडेशन की एचआईवी-एड्स कान्फ्रेंस में मैं भी आमंत्रित था। शेखर उस वक्त लोकसत्ता के चीफ कॉपी एडिटर थे। शेखर और मैं दोनों ही काइज़र फेलो थे। मेरा पहला असाइनमेंट महाराष्ट्र था। मुंबई के कमाठीपुरा, पुणे के बुधवारपैठ जैसे रेडलाइट इलाकों और पंचगनी में फादर टॉमी के टीबी सेनीटोरियम में जाकर एचआईवी एड्स से जुड़े सामाजिक-आर्थिक तथ्यों को जुटाने में शेखर ने मेरी काफी मदद की। बाद में मणिपुर, पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश, म्यांमार, कनाडा और यूरोप के कई देशों में फेलोशिप पर काम करते वक्त हम साथ-साथ थे। मौत से जूझते बेबस लोगों, समाज के तिरस्कृत व्यक्तियों और एचआईवी-एड्स जागरूकता को लेकर शेखर बेहद जुनूनी है। हाल ही में मराठी में लिखी उसकी किताब ...पॉजिटिव माइंड्स... आई तो उसकी पहली चंद प्रतियों में से एक शेखर ने मुझे भेजी। इससे पहले जब भी कोई बड़ी कामयाबी मिली या परेशानी हुई तो हमेशा उसका फोन आया। तीन साल पहले उसे इंडियन एक्सप्रेस ग्रुप का रामनाथ गोयनका अवार्ड मिला। फिर वह अमेरिका के जॉन हॉपकिन्स ब्लूमबर्ग स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ में हुई तीन हफ्ते की वर्कशॉप में भाग लेने के लिए गया। विषय था-...लीडरशिप इन स्टै्रटजिक हेल्थ कम्युनिकेशन...। लौटने के बाद उसने वहाँ के अनुभव बताए थे। साथ ही यह भी बताया था कि अब उसका अगला विषय ...माइग्रेशन या पलायन... और उसके आर्थिक-सामाजिक प्रभाव हैं। बहरहाल, शेखर के बारे में इतनी सारी बातें करने का मकसद सिर्फ यह बताना है कि उसकी एक पत्रकार के तौर पर क्या हैसियत है। देशभर के अस्पतालों, गरीबों की सेहत, इलाज के सरकारी ढाँचे और एचआईवी-एड्स जैसे गूढ़ विषयों के बारे में शेखर जैसी गहरी जानकारी रखने वाले जर्नलिस्ट गिने-चुने ही हैं। उसके इस जुनून के पीछे सिर्फ एक संवेदनशील पत्रकार होना ही नहीं, बल्कि इंसानियत भी है। बतौर इंसान शेखर के दिल में आम लोगों के लिए मैंने जो कसक देखी, वह कम लोगों में होती है। ऐसा शख्स आज खुद अपनी जिंदगी के लिए लड़ रहा है। वह हिम्मती है। उसकी लेखनी ने ना जाने कितने मरते हुए जिस्मों में जान फूँकी है।
...वह मुझे भी कुछ न बताता। उसका मैसेज मेरे कई बार फोन और मैसेज करने के बाद आया। इतना अंदाजा तो मुझे पहले ही था कि जरूर कोई गंभीर बात है, पर हालत यहाँ तक पहुँच गई होगी, इसका मुझे अंदाज नहीं था। कुछ महीने पहले बात हुई थी तो शेखर ने बड़े ही हल्के-फुल्के अंदाज में बताया था कि पीठ में कुछ गांठे हैं। जाँच में शुरुआती दौर का कैंसर निकला है। डॉक्टरों ने कहा है, ठीक हो जाएगा। बाद में उसने बताया कि खून के कुछ कम्पोनेंट ट्रांसप्लांट किए जा सकते हैं। इसके लिए काफी पैसों की जरूरत भी थी और मुझसे बातचीत का सार यह था कि किस तरह से अधिक से अधिक मदद जुटाई जा सकती है। हम दोनों ने मिलकर कुछ कोशिशें भी की। फिर काफी दिनों तक कोई बात नहीं हुई। आज शेखर का मैसेज मिला तो काँप गया।
मैंने तुरंत दूसरा संदेश भेजा-
.. शेखर मैं तुम्हारे लिए अपने दोस्तों से मदद की अपील करना चाहता हूँ... क्या तुम्हारी इजाजत है...
करीब दो घंटे बाद उसका जवाब आया-
सुधीर... चिंता मत करो ...15 दिन में डिस्चार्ज करने की बात डॉक्टर ने कही है... कैंसरस सेल खत्म हो चुके हैं ...स्टेम सेल थेरेपी...क्यूरेटिव मैथेड है...आनेवाले 5-6 महीने संक्रमण से बचना होगा...आप सबकी दुआ तो साथ है ही...तो कोई टेंशन नहीं..। थोड़ी देर बाद फोन भी आ गया। उसने कहा..तुम तो जानते ही हो कि हमने एचआईवी से लड़ते लोगों के बीच काम किया है। वो लोग तो बीमारी के साथ-साथ तिरस्कार भी झेलते हैं। कम से कम अपने साथ ऐसा नहीं है। लोग मुझसे मिलने आते हैं। मेरे सामने वाले बेड पर रायपुर के एक बच्चे को भी मेरी जैसी बीमारी है। उसके इलाज का खर्चा 50 लाख से ज्यादा है। मेरा कम से कम इतना तो नहीं है। मैं उसे देखता हूँ तो मेरी चिंता और तकलीफ दोनों कम हो जाती हैं..तुम चिंता मत करो। .. मैं जानता हूँ कि शेखर स्वाभिमानी पत्रकार है। लोकसत्ता के उसके पुराने सम्पादक कुमार केतकर ने उसके इलाज के लिए काफी कोशिश की हैं। वह अब किसी से कुछ नहीं कहेगा और मैं सिर्फ इतना ही कहूँगा ..शेखर तुम वाकई बहुत बहादुर हो..ईश्वर तुम्हारे जैसी हिम्मत हर उस शख्स को दे, जो बीमारी या मुसीबतों से लड़ रहा है-आमीन।
...आफ्टर स्टेम सेल ट्रांसप्लांट प्रोसेज़ ऑफ न्यू सेल्स फार्मेशन कॉजेज फ्लक्चुएशन इन बीपी, वेट गेन-लॉस, टेरिबल वीकनेस, स्टोमच डिसऑर्डर... कुड नॉट वॉक और सिट फॉर लास्ट 10 डेज़, इट्स लाइक गोइंग टू बैक इनफैन्ट्स स्टेज़.. ..बट फ्यू डेज़ बैक आई डिसाइडेड टू टुक फर्स्ट बेबी स्टेप विदआउट सपोर्ट... इट फील लाइक बिगनिंग ऑफ ए न्यू लाइफ...
...यस, फ्यू मोर चैलेंजेज विल हैव टू फेस बिफोर गेटिंग डिस्चाच्र्ड फ्रॉम द हॉस्पिटल...
...शुड कम आउट फ्रॉम आइसोलेशन अराउंड फस्र्ट वीक ऑफ सेप्टम्बर एंड फाइनल डिस्चार्ज वुड बी अराउंड सेकेंड
...शेखर
संदेश पढ़ते ही मैं समझ गया कि शेखर की हालत ठीक नहीं है। वो मेरे बहुत करीबी दोस्तों में एक है। पहली मुलाकात 2006 में मुंबई में हुई थी। काइज़र फाउंडेशन की एचआईवी-एड्स कान्फ्रेंस में मैं भी आमंत्रित था। शेखर उस वक्त लोकसत्ता के चीफ कॉपी एडिटर थे। शेखर और मैं दोनों ही काइज़र फेलो थे। मेरा पहला असाइनमेंट महाराष्ट्र था। मुंबई के कमाठीपुरा, पुणे के बुधवारपैठ जैसे रेडलाइट इलाकों और पंचगनी में फादर टॉमी के टीबी सेनीटोरियम में जाकर एचआईवी एड्स से जुड़े सामाजिक-आर्थिक तथ्यों को जुटाने में शेखर ने मेरी काफी मदद की। बाद में मणिपुर, पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश, म्यांमार, कनाडा और यूरोप के कई देशों में फेलोशिप पर काम करते वक्त हम साथ-साथ थे। मौत से जूझते बेबस लोगों, समाज के तिरस्कृत व्यक्तियों और एचआईवी-एड्स जागरूकता को लेकर शेखर बेहद जुनूनी है। हाल ही में मराठी में लिखी उसकी किताब ...पॉजिटिव माइंड्स... आई तो उसकी पहली चंद प्रतियों में से एक शेखर ने मुझे भेजी। इससे पहले जब भी कोई बड़ी कामयाबी मिली या परेशानी हुई तो हमेशा उसका फोन आया। तीन साल पहले उसे इंडियन एक्सप्रेस ग्रुप का रामनाथ गोयनका अवार्ड मिला। फिर वह अमेरिका के जॉन हॉपकिन्स ब्लूमबर्ग स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ में हुई तीन हफ्ते की वर्कशॉप में भाग लेने के लिए गया। विषय था-...लीडरशिप इन स्टै्रटजिक हेल्थ कम्युनिकेशन...। लौटने के बाद उसने वहाँ के अनुभव बताए थे। साथ ही यह भी बताया था कि अब उसका अगला विषय ...माइग्रेशन या पलायन... और उसके आर्थिक-सामाजिक प्रभाव हैं। बहरहाल, शेखर के बारे में इतनी सारी बातें करने का मकसद सिर्फ यह बताना है कि उसकी एक पत्रकार के तौर पर क्या हैसियत है। देशभर के अस्पतालों, गरीबों की सेहत, इलाज के सरकारी ढाँचे और एचआईवी-एड्स जैसे गूढ़ विषयों के बारे में शेखर जैसी गहरी जानकारी रखने वाले जर्नलिस्ट गिने-चुने ही हैं। उसके इस जुनून के पीछे सिर्फ एक संवेदनशील पत्रकार होना ही नहीं, बल्कि इंसानियत भी है। बतौर इंसान शेखर के दिल में आम लोगों के लिए मैंने जो कसक देखी, वह कम लोगों में होती है। ऐसा शख्स आज खुद अपनी जिंदगी के लिए लड़ रहा है। वह हिम्मती है। उसकी लेखनी ने ना जाने कितने मरते हुए जिस्मों में जान फूँकी है।
...वह मुझे भी कुछ न बताता। उसका मैसेज मेरे कई बार फोन और मैसेज करने के बाद आया। इतना अंदाजा तो मुझे पहले ही था कि जरूर कोई गंभीर बात है, पर हालत यहाँ तक पहुँच गई होगी, इसका मुझे अंदाज नहीं था। कुछ महीने पहले बात हुई थी तो शेखर ने बड़े ही हल्के-फुल्के अंदाज में बताया था कि पीठ में कुछ गांठे हैं। जाँच में शुरुआती दौर का कैंसर निकला है। डॉक्टरों ने कहा है, ठीक हो जाएगा। बाद में उसने बताया कि खून के कुछ कम्पोनेंट ट्रांसप्लांट किए जा सकते हैं। इसके लिए काफी पैसों की जरूरत भी थी और मुझसे बातचीत का सार यह था कि किस तरह से अधिक से अधिक मदद जुटाई जा सकती है। हम दोनों ने मिलकर कुछ कोशिशें भी की। फिर काफी दिनों तक कोई बात नहीं हुई। आज शेखर का मैसेज मिला तो काँप गया।
मैंने तुरंत दूसरा संदेश भेजा-
.. शेखर मैं तुम्हारे लिए अपने दोस्तों से मदद की अपील करना चाहता हूँ... क्या तुम्हारी इजाजत है...
करीब दो घंटे बाद उसका जवाब आया-
सुधीर... चिंता मत करो ...15 दिन में डिस्चार्ज करने की बात डॉक्टर ने कही है... कैंसरस सेल खत्म हो चुके हैं ...स्टेम सेल थेरेपी...क्यूरेटिव मैथेड है...आनेवाले 5-6 महीने संक्रमण से बचना होगा...आप सबकी दुआ तो साथ है ही...तो कोई टेंशन नहीं..। थोड़ी देर बाद फोन भी आ गया। उसने कहा..तुम तो जानते ही हो कि हमने एचआईवी से लड़ते लोगों के बीच काम किया है। वो लोग तो बीमारी के साथ-साथ तिरस्कार भी झेलते हैं। कम से कम अपने साथ ऐसा नहीं है। लोग मुझसे मिलने आते हैं। मेरे सामने वाले बेड पर रायपुर के एक बच्चे को भी मेरी जैसी बीमारी है। उसके इलाज का खर्चा 50 लाख से ज्यादा है। मेरा कम से कम इतना तो नहीं है। मैं उसे देखता हूँ तो मेरी चिंता और तकलीफ दोनों कम हो जाती हैं..तुम चिंता मत करो। .. मैं जानता हूँ कि शेखर स्वाभिमानी पत्रकार है। लोकसत्ता के उसके पुराने सम्पादक कुमार केतकर ने उसके इलाज के लिए काफी कोशिश की हैं। वह अब किसी से कुछ नहीं कहेगा और मैं सिर्फ इतना ही कहूँगा ..शेखर तुम वाकई बहुत बहादुर हो..ईश्वर तुम्हारे जैसी हिम्मत हर उस शख्स को दे, जो बीमारी या मुसीबतों से लड़ रहा है-आमीन।
Yes he is! n HIV/AIDS is one of my fav topics too and they do face loadsa stigma indeed.
ReplyDeletesekhar ko salaam
ReplyDeletethanx atul and others
ReplyDeleteu r very dynamic n creative. HIV is common working topic between us.
ReplyDeletevakai..hats off!
ReplyDeleteभगवान श्री गणेश आपको एवं आपके परिवार को सुख-स्मृद्धि प्रदान करें! गणेश चतुर्थी की शुभकामनायें!
ReplyDeleteशेखर जी को सलाम !
सुधीरजी मै इस आर्टिकलसे प्रभावित हुआ हू ! शेखर की मेरी लोकसत्ता से जान-पहचान है. और प्रोफेशनल फ्रंटसे ये नाता अब गहरी दोस्तीमें बदल चुका है. शेखरसे मेरी २-४ दिनमे वार्ता होती है. मैने मेरे अपनोंको इस हालत मैं देखा है. बहोत ऐसे होते जो आधी लढाई पहिलेही हार जाते है. मैने शेखर को ये लढाई जीतते हुए देखा है. और इसका एक रिज्युव्हनेशन हुआ है. वो समाज के प्रती जितने चिंतनशील है शायद आजकी पत्रकारिता मै इतने लोग कम मिलते है. शेखरने इस बिमारीवर हावी होकर एक पॉझिटिव्ह माईँड का दायरा रखा है. हॅटस् ऑफ टू शेखर -----सुजय शास्त्री sujayshastri@gmail.com
ReplyDeletegood work, realy heart touching article
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