लाल लकीर पर चहलकदमी का बैलेंस


 उपन्यास-लाल लकीर लेखक - ह्रदयेश जोशी
प्रकाशक-हार्पर इंडिया
मूल्य  - तीन सौ पचास रुपए

 ह्दयेश जोशी के इस उपन्यास में कहीं लिखा है- इस लाल लकीर के पीछे रहे तो पुलिस की हिंसा और अगर लकीर को पार किया तो क्रान्तिकारियों की हिंसा। हम इस लकीर के गुलाम हैं-
यह तकलीफ है, बस्तर और छत्तीसगढ़ के नक्सली प्रभावित इलाके में रहने वालों की। उनके लिए यह बेहद मुश्किल है कि वह सत्ता और नक्सलियों के बीच की इस विभाजक रेखा के दरम्यां रहकर एक संतुलन कायम रख सकें। यही दिक्कत अखबारनवीसों, साहित्यकारों और लेखकों के लिए भी है। ह़दयेश ने नक्सलवाद जैसे बेहद संवेदनशील मसले पर उपन्यास लिखने में गजब का हुनर दिखाया है… लाल लकीर पर चलते हुए बैलेंस बनाने का। उपन्यास पढ़ने के बाद आप यह कतई बता पाने की स्थिति में नहीं होंगे कि लेखक लकीर के इधर है या उधर।
नक्सली समस्या पर किताब लिखना आसान नहीं। ज़रा सी चूक हो जाए तो लेखक को तरह तरह के तमगों से सुशोभित किए जाने का रिस्क होता है पर आप लाल लकीर को पढ़िए। लेखक ने इस खूबसूरती से लिखा है कि पाठक सिर्फ बस़्तर और छत्तीसगढ़ को जीना शुरू कर देता है। जोशी ने इसे रस्सी पर चलने वाले उस नट की तरह लिखा है जो बैलेंस बनाए रखने में निपुण है। नॉवेल खत्म होने के बाद याद रहते हैं तो सिर्फ उ
पन्यास के चरित्र। भीमा, रामदेव, रेड्डी, सुरी और दूसरे छोटे बड़े किरदार। उनके इर्द गिर्द बुना गया कथानक वास्तव में पिछले पंद्रह बरसों के दौरान बस्तर में घटित घटनाओं का निचोड़ है। इसमें नायक नायक नहीं नजर आता और विलेन खलनायक नहीं। आप किसी भी चरित्र से बहुत ज्यादा प्यार या घृणा नहीं कर सकते। सब अपने-अपने चरित्र को बिना लागलपेट जीते नजर आते हैं। चूंकि हृदयेश एक टीवी जर्नलिस्ट रहे हैं, बहुत सी घटनाओं को उन्होंने खुद मौके पर जाकर कवर किया है और बहुत से चरित्र ऐसे हैं जिनसे वास्तव में वह खुद रूबरू हुए हैं तो जाहिर है उनके लेखन में जीवंतता तो होगी ही और वह है भी।

मैने बस्तर, छत्तीसगढ़ और नक्सलवाद के बारे में यह पहली किताब पढ़ी। इससे पहले अखबारों, टीवी चैनल और फिल्मों के जरिए ही इन जगहों के बारे में जाना था। कभी गांव वालों का मारा जाना तो कभी नक्सलियों का। कभी सीआरपीएफ कैंप पर हमला तो कभी नेताओं के काफिले को उड़ा देना। पाठकों को इनकी जानकारी तो न्यूज के जरिए मिलती रही है। ह़दयेश का नॉवेल लाल लकीर आपको वहां के हालात में जीने का मौका देता है। यह हकीकत के करीब ले जाता है। बताता है कि सच के अपने अपने वर्जन होते हैं। कभी कभी हर पक्ष एकसाथ सच भी होता है और झूठ भी। हॉपर्र कॉलिंस पब्लिशर्स इंडिया ने यह उपन्यास मुझे तीस दिसम्बर 2015 की दोपहर कूरियर के जरिए भेजा था। यकीन मानिए हाथ में आते ही मैने इसे पढ़ना शुरू किया और रात नौ बजे तक खत्म कर दिया। ऐसा मेरे पढ़ने की रफ्तार या शौक की वजह से नहीं बल्कि उपन्यासकार की सजीव लेखनी की वजह से हुआ। एकदम किसी फिल्म की स्क्रिप्ट या पटकथा की तरह, जिसे फिल्मी पर्दे के बजाए एक किताब में उतारा गया हो। उपन्यास के संपादन में काफी ज्यादा कसावट है। नॉवेल में कहीं भी झोल नजर नहीं आते। यह बोर नहीं करता। वर्तनी और व्याकरण की कोई गलती भी नजर नहीं आई। यकीनन इसके लिए पब्लिकेशन और उसके एडिटर बधाई के पात्र हैं। ह्दयेश की तारीफ तो करनी ही होगी। वह एक पत्रकार हैं और संवेदनशील इंसान भी। उनका उपन्यास लाल लकीर इसका प्रमाण है।

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