सियासत पढ़नी हो तो आओ उत्तर प्रदेश में


यह शह और मात का खेल है। नेता और वोटर के बीच। 2006 की बात है। अमिताभ बच्चन को उत्तर प्रदेश का ब्रैंड एम्बैसडर बनाया गया। उन्होंने नारा दिया-यूपी में बहुत दम है, क्योंकि अपराध यहां कम है। सरकार को इसका कोई खास फायदा नहीं मिला। क्या है कि यहां के नेता चाहे कितने कौड़ियाले हों पर जनता हमेशा सवा सेर साबित होती है। बच्चन साहब टीवी, रेडियो और होर्डिंग्स से लेकर विज्ञापनों तक में बोलते रहे पर यूपी वालों ने सरकार पलट दी। अब आजकल हाल देखिए। एक खबर छपी कि गायत्री प्रजापति अमेरिका में हिलेरी क्लिंटन के साथ भाषण देंगे। दूसरी खबर थी यादव सिंह जेल पहुंचे। तीसरी खबर बाबू सिंह कुशवाहा जेल से छूटे और चौथी खबर थी कि मुख्तार अंसारी से मकोका हटा। इतनी मजेदार खबरें पढ़ते ही मन में आया कि इस बार यूपी में एक नया ही ब्रैंड स्लोगन देना चाहिए। स्लोगन कुछ यूं हो सकता है-  
क्या सीखोगे हावर्ड और ऑक्सफोर्ड में
सियासत पढ़नी हो तो आओ उत्तर प्रदेश में

तुकबंदी में भले ही दम न हो पर बात में है। मसलन यूरोप के राजनीतिक विचारक मैकियावली के सिद्धांतों को समझना हो तो यूपी से बेहतर जगह और क्या हो सकती है? वह साफ कहता था कि सियासत और नैतिकता का कोई लेना देना नहीं। यानी जितना बड़ा झूठा, उतना बड़ा नेता। पहला ही सिद्धांत यूपी के नेताओं पर एकदम फिट है। उसने कहा था कि जनता अगर सच्ची और चरित्रवान है तो लोकतंत्र, नहीं तो फिर राजतंत्र। राजा को शेर की तरह ताकतवर और लोमड़ी की तरह चालाक होना चाहिए। यानी मौका पड़े तो फाड़ खाए नहीं तो हंसते-हंसते टोपी पहनाए।  हमारे ज्यादातर नेता ऐसे ही हैं। कहने को लोकतंत्र पर हकीकत में राजतंत्र। बीते पचास साल का सियासी इतिहास खंगालिए। ज्यादातर नेता पुराने नेताओं के बेटे, बेटी, बहू या दामाद हैं। राजतंत्र की तरह ही सत्ता एक पीढ़ी से दूसरी में ट्रांसफर हो रही है। नेता ऐसे क्यों हैं? इसके जवाब के लिए हमें जनता के करैक्टर पर नजर डालनी चाहिए। ज्यादातर सरकारी महकमों में बीस से लेकर चालीस प्रतिशत तक कमीशन चलता है। खाओ और खाने दो। लेने और देने वाले दोनों ही वोटर हैं। यह बीमारी सिर्फ सरकारी लोगों में ही नहीं। आम लोग भी कम चंट नहीं। एक कामवाली बाई प्रधानी चुनाव का किस्सा बता रही थी। प्रधानी के एक दावेदार से उसे सोने की कील मिली और दूसरी से साड़ी। उसके पति की दारू-मुर्गे की दावत भी हुई। कई प्रत्याशी थे और सबने कुछ न कुछ दिया पर वोट तो किसी एक को ही देना था, सो दे आई। अब जरा सोचिए, पूरे प्रदेश में प्रधानी के चुनाव में यही हुआ। 
अब ब्लॉक प्रमुख के चुनावों का किस्सा देखिए। पचास-पचास सदस्यों को लोग अपनी-अपनी तरफ हांकने में कामयाब हैं। कोई गोवा में है तो कोई काठमांडू में। पैसों की शुरुआत एक लाख से हुई और कई सयानों ने तो पांच लाख से लेकर मोटरकार तक घर में खड़ी कर दी। आखिर वोटरों को खिला पिलाकर जीते हैं तो वसूलेंगे नहीं। ज्यादातर प्रत्याशियों ने लोमड़ी बनकर काम चलाया और कहीं-कहीं शेर बने। लिहाजा काफी जगहों पर लोग निर्विरोध ही जीत गए। विधायकी के चुनाव में भी ऐसा ही हाल रहता है। गांव हो या शहर, सब जगह एक सा। यहां खुला खेल फर्रुखाबादी है। लोग कहते कुछ हैं और खुलेआम करते कुछ हैं। नेता को सबकुछ पता है और जनता भी सब जानती है। यादव सिंह जेल जाएं या कुशवाहा छूटें। मुख्तार से मकोका हटे या गायत्री अपनी ब्रैंडिंग करें। सब वोट का खेल है। इस पार्टी का नेता फंसता है तो उस पार्टी वाले बचाते हैं। वोटर सबसे मजा लेता है। वे जमाने चले गए, जब जनता भी कांति मोहन सोज के इन शब्दों में नेताओं को ललकारती थी-
गोदामों में माल भरा है, नोट भरे हैं बोरों में
बेहोशों को होश नहीं है, नशा चढ़ा है जोरो में
ऐसे में तू हांक लगा दे, ला मेरी मेहनत का मोल
बोल मजूरे हल्ला बोल 
जाहिर है सब खा-पी रहे हैं। अब किसको जरूरत पड़ी है हल्ला बोलने की। वामपंथी हों या दक्षिणपंथी। सब भगत सिंह के पोस्टर लगाए घूम रहे हैं। सब चाहते हैं कि भगत सिंह पैदा हों पर कहां, पड़ोसी के घर में।

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