अदृश्य पूंछ वाले लोग


कहते हैं जब वक्त खराब हो तो ऊंट पर बैठे आदमी को कुत्ता काट लेता है। इस बात में कुछ न कुछ सच्चाई तो जरूर होगी। कभी न कभी, कहीं न कहीं ऊंट पर बैठे किसी आदमी को कुत्ते ने काटा ही होगा। कहावतें ऐसी ही थोड़े बन जाती हैं। यह जरूर है कि कभी-कभी लोकोक्तियां एकदम 180 डिग्री घूमकर दूसरे सिरे पर भी नजर आती हैं। इसकी मिसाल हाल ही में देखने को मिली, जब एक आईएएस अफसर के घर डकैती पड़ी। जर्मन शेफर्ड और लैब्राडोर जैसे कुत्ते एयरकंडीशंड कमरों में बंधे रह गए। चोरों की तकदीर देखिए देसी चाकू लगाकर इंग्लिश रिवाल्वर तक लूट ले गए। अफसर महोदय के साथ हुए इस हादसे से मुझे अचानक राजेन्द्र प्रसाद पाण्डेय की एक कविता याद आ गई-
वे सब कुत्ते दोगले हैं
जो गर्दनें
मोटे पट्टों और कीमती जंजीरों को सौं कर उन्हें प्यारे हैं
असलियत उनमें है
जो अपनी टांगों के बूते
अपनी दिशा खोजते हैं
और पालिका की दृष्टि में
लावारिस हैं, आवारे हैं
यकीनन पाण्डेयजी ने कुत्तों की नस्ल पर कविता लिखने से पहले जरूर अध्ययन किया होगा। आज के परिवेश में कुत्तों की मूलत: दो नस्लें हैं। पहले घरों में रहने वाले डॉगीज और दूसरे सड़क पर रहने वाले कुत्ते। अपनी हमदर्दी डॉगीज और कुत्तों दोनों के ही साथ है पर सड़क वाले कुत्तों के साथ थोड़ी ज्यादा। दरअसल, इस कुत्ता प्रेम के पीछे एक प्राचीन कथा है। सच है या झूठ, पता नहीं पर कथा है। पुराने वक्त में आदमी और जानवर सब जंगलों में ही रहते थे। धीरे-धीरे दोनों ही प्रजातियां समझदार होने लगीं। ज्यादातर जानवरों को लगता था कि उनके लिए जंगल ही ठीक हैं। और ज्यादातर इंसानों को लगा कि उन्हें खेती-बाड़ी करके गांव बसाने चाहिए। जंगल में बंटवारे का वक्त आया तो जिन्हें आज जंगली कहा जाता है, ऐसे सभी जानवर एकतरफ हो गए। दुधारू जानवरों को इंसानों ने खुद ही अपने साथ ले लिया। बच गए कुत्ते। कुत्तों ने खुद तय किया कि वे इंसानों के साथ रहेंगे। कुत्ते आ तो गए गांव और शहरों में, पर उनमें से कुछ को ही घरों में जगह मिली। बाकी सब सड़क के हवाले हो गए और इंसानों के बचे-खुचे खाने पर उनकी जिंदगी चलने लगी। बदले में अजनबियों पर रात भर भौंककर वे चौकीदारी करते हैं।
बरसों से यह सिलसिला चला आ रहा था, लेकिन घरों में रह रहे इंसान और कुत्तों, दोनों की ही आदतें बदलने लगी हैं। कुत्ते अब भी रात में बदस्तूर भौंकते हैं पर डॉगीज को इंसानों की तरह लिहाफ चाहिए। वॉर्मर और एयरकंडीशनर चाहिए। साहबों को मेमसाहब का साथ मिले न मिले पर डॉगीज उनके साथ कारों में घूमते हैं। आरामतलब जीवनशैली ने अब उन्हें शुगर, ब्लड प्रेशर और मोटापे जैसी बीमारियां तक होने लगी हैं। आप बड़े-बड़े बंगलों और फ्लैट्स में जाकर देखिए। ऐसे-ऐसे आलसी कुत्ते मिलेंगे, जिन्हें उठाने के लिए मालिक उन्हें धकियाते हैं। पक्के फर्श पर चल चलकर उनकी टांगे टेढ़ी हो चुकी हैं और वे तेज दौड़ नहीं सकते। मोटे पट्टों और खूबसूरत जंजीरों में ये डॉगीज़ महज शोपीस हो गए हैं, जो चोर के घुसने पर भी अपनी नींद में खलल डालना पसंद नहीं करते। डॉगीज दुम भी हिलाते हैं तो लगता है अहसान कर रहे हैं। दूसरी तरफ कुत्तों को देखिए। थोड़ी सी बची हुई रोटियों के एवज में सीलिंग फैन जैसी पूंछ हिलाते हैं। वैसे इनसे भी ज्यादा तेज पूंछ हिलाने वाली एक और नस्ल है। अदृश्य पूंछ वाले इंसानों की। समाज के हर क्षेत्र में आपको इनकी खासी तादाद नजर आएगी। मनुष्य के पूवर्ज चौपाया थे, पूंछ भी होती थी। धीरे-धीरे क्रमिक विकास में वह दो पांव पर आया। फिर पूंछ भी गायब हो गई पर पूंछ हिलाने की आदत कुछ लोगों में कायम रहती है। अदृश्य पूंछ वाले लोग ऐसे ही साधक हैं। इस साधना पर काफी कुछ पहले भी लिखा जा चुका है। मैं तो डॉगीज और कुत्तों की बात कर रहा था। बातों के इस सिलसिले को अब हरिवंश राय बच्चन की इन पंक्तियों के साथ विराम-
रात-रात भर श्वान भूकते। पार नदी के जब ध्वनि जाती,
लौट उधर से प्रतिध्वनि आती समझ खड़े समबल प्रतिद्वंद्वी 
दे-दे अपने प्राण भूकते। रात-रात भर श्वान भूकते।
जी श्वान से यहां मतलब कुत्तों से है, डॉगीज तो खैर-

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