क्या वाकई, केवल बालिगों के लिए

एक शेर कहीं पढ़ा था। शायर कौन हैं, पता नहीं पर है मजेदार। खासतौर पर जब कोई काम सलीके या तमीज़ से न हो तो ऐसे हालात के लिए एकदम मौजू-
मयख़ाना-ए-हस्ती का जब दौर ख़राब आया
कुल्लड़ में शराब आई पत्ते पे कबाब आया...
अमां आजकल की फिल्में देखिए। पत्ते पर कबाब जैसी ही बात है। फिल्में देखना पसंद है तो जाहिर है ट्रेलर भी देखे ही जाते होंगे। ऐसी ही कुछ हालिया फिल्मों के ट्रेलर पर नजर पड़ी तो दंग रह गया। एडल्ट कॉमेडी कहा जा रहा है इन फिल्मों को। सेंसर बोर्ड से पास भी हो गई हैं। यकीनन बोर्ड को लगा होगा कि इन फिल्मों को सिर्फ बालिग ही देखेंगे। सेंसर बोर्ड के अध्यक्ष वही पहलाज निहलानी जी हैं, जिन्होंने कुछ दिन पहले प्रधानमंत्री के छवि चमकाने के लिए एक डॉक्युमेन्ट्री बनाई थी। इसमें दुबई में बनी सड़कों को इंडिया का दिखाया गया था। उस वक्त भी शायद उन्हें नहीं पता होगा कि इंटरनेट पर हर तस्वीर व वीडियो सर्च किया जा सकता है।
गजब विरोधाभास है। एक तरफ संस्कृति, मर्यादा और शालीनता हैं। फिल्म सेंसर बोर्ड है जो जेम्स बॉन्ड की फिल्म में चुंबन दिखाने पर आपत्ति करता है तो दूसरी तरफ यही बोर्ड ऐसे दृश्य व संवाद पास कर देते है, जिन्हें शायद दादा कोंडके भी देख लेते तो सोचते कि उन्हें आज के दौर में फिल्में बनाने का मौका क्यों नहीं मिला? दादा कोंडके के बारे में शायद काफी लोग जानते होंगे फिर भी बताना फर्ज बनता है। पिछली सदी के आखिरी दशकों में कोंडके मराठी फिल्म इंडस्ट्री के सबसे कामयाब फिल्मकारों में से एक थे। एक के बाद एक उनकी सात फिल्में लगातार सुपरहिट रही थीं जो कि उस वक्त एक रेकॉर्ड था। फिल्म कला, शिल्प, नृत्य या संगीत की दृष्टि से खूबसूरत हों, ऐसा नहीं था। असल में उनकी ज्यादातर फिल्में आम लोगों की उन भावनाओं को गुदगुदाती थीं, जिनके बारे में लोग छिपकर बात करते थे। उनकी फिल्में अश्लील थीं या दर्शकों की सोच, यह बहस का विषय हो सकता है पर यह एक हकीकत है कि द्विअर्थी संवादों, हाव भाव व नृत्य के जरिए उनकी फिल्में काफी मर्दानी भीड़ जुटाती थीं।
हिन्दी फिल्मों में भी उन्होंने घुसपैठ की कोशिश की। तेरे मेरे बीच में और अंधेरी रात में दिया तेरे हाथ में जैसी फिल्में बनाई। पर उत्तर भारत के ज्यादातर हिन्दी दर्शकों ने उन्हें पसंद नहीं किया। भोजपुरी फिल्मों भी ऐसे प्रयोग किए जाते रहे पर इनमें भी अश्लील फिल्मों की जगह उन्हीं फिल्मों को पसंद किया गया जो सामाजिक जीवन पर आधारित थीं। अलबत्ता एडल्ट कॉमेडी के तौर पर यहां शौकीन और छोटी सी बात सरीखी फिल्में जरूर पसंद की गई, जो गुदगुदाती तो थीं पर बिना फूहड़ता के। हिन्दी फिल्मों में डीके बोस सरीखे फूहड़ गानों व फिल्मों का दौर हाल के कुछ वर्षों में आया। वैसे केवल बालिगों के लिए या ओनली फॉर एडल्ट्स के बोर्ड काफी जमाने से सिनेमाघरों के बाहर लगते रहे हैं। लेकिन वह दौर और था। 1953 से 1967 के बीच हॉलीवुड में रोमांटिक कॉमेडी के एक लम्बा दौर चला। इसमें मर्लिन मुनरो जैसी महान अभिनेत्रियों ने काम किया। बाद में कैरी ऑन सीरीज की कई कॉमेडी फिल्में आईं। इससे पहले यूरोप में सत्रहवीं शताब्दी और उससे भी काफी पहले 411 इसवीं के ग्रीक थियेटर में भी वयस्कों के लिए एडल्ट थियेटर था। एडल्ट थियेटर यहां भी किए जाते रहे हैं पर वह वाकई में बालिगों के लिए होता है। हॉलीवुड की एडल्ट फिल्मों भी क्रेज रहा है। पर वह दौर और था। तब मोबाइल फोन नहीं थे, इंटरनेट नहीं था और यूट्यूब नहीं था। अच्छी तरह से याद है कि लखनऊ में मेफेयर सिनेमाघर के बाहर खड़ा गेटकीपर भी स्कूल यूनीफॉर्म  में आए किशोरों को घूर देता था तो वह एडल्ट फिल्म देखने का हौसला छोड़ देते थे पर क्या आज ऐसा है? आज टीन एज के हर बच्चे की जेब में मोबाइल है और उसकी पहली नजर ऐसे ही सॉफ्ट पॉर्न पर पड़ती है, जैसी की सेंसर बोर्ड ओनली फॉर एडल्ट कहकर पास कर रहा है। क्या सेंसर बोर्ड का इन एडल्ट फिल्मों के ऑफीशियल ट्रेलर्स पर कोई नियंत्रण है ? अगर नहीं है तो फिर अब ऐसी फिल्मों को ए सार्टिफिकेट देने की जरूरत भी क्या है?

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